भगवान श्री कृष्ण योगेश्वर थे या नहीं??

                                ।। ओ३म्।।

विषय - भगवान श्री कृष्ण योगेश्वर थे या नहीं??


                     लेखक - राज आर्य

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नमस्ते सभी पाठकगण! हमारे सामने एक पक्ष सुनने मे आया की भगवान कृष्ण योगी नहीं थे। और उनका हेतु होता है - गृहस्थी या क्षत्रिय को योगी होने का या मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार नहीं। अतः आइये सत्य असत्य की परिक्षण करते है।

हमारा मत है- भगवान श्री कृष्ण योगी थे

हेतु- योगी के सभी लक्षण उनमे घटने से।

महाभारत मे बहुत मिलावट माना जाता है किन्तु जो वेदानुकूल होवें उसको मानना चाहिए। अतः हम इस लेख मे सभी चीजों पर बारी बारी से तर्क प्रमाणों के आधार पर लिखकर अपना मत प्रस्तुत करेंगे।

 ईश्वर कृत श्रुति प्रमाण ही परम प्रमाण मानने योग्य है। अतः हम वेद से ही आरंभ करते है ।🙏

प्रश्न- ब्राह्मण किसे कहते है?

उत्तर- ब्राह्मण का अर्थ ऋषि दयानन्द ने यजुर्वेद 7/46 मे वेद और ईश्वर के जानने हारा अर्थ किया है।

पाठकवृन्द! यहाँ भावार्थ मे सभी मनुष्यो के योगी बनने के भी स्पष्ट अधिकार वर्णन प्राप्त हो रहा है, फिर विचार करें अन्य वर्ण योगी क्यों नहीं हो सकते??

मीमांसा दर्शन ३/१/२४ मे कल्प विधि सूत्रों और स्मार्त पदों हेतु ब्राह्मण संज्ञा को ठीक से आर्य मुनि भाष्य मे समझाया है -

ब्रह्म विद्या को जानने वाले हर व्यक्ति ब्राह्मण ही है। जो ब्राह्मण इनको नहीं जानता वो ब्राह्मण नहीं और जो ब्रह्म विद्या को जानने हारा है वह क्षत्रिय ब्राह्मण तुल्य ही कहलाया जायेगा। ब्राह्मण शब्द के रूढ़ अर्थ करने से बचे।

तो कृष्ण जी का वर्ण क्या है?

देखिये भगवान कृष्ण जी के गुण कर्म स्वाभाव कुछ इसप्रकार थे की ब्राह्मणों मे वे श्रेष्ठ ब्राह्मण (भीष्म जी, कर्ण, अर्जुन आदि को धर्म का मर्म समझाने कि एवं अभिमन्यु आदि को शस्त्र विद्या के शिक्षा देने से आदि आदि अनेक प्रसंग है तथा ब्राह्मणों के तुल्य अहिंसा का पालन एवं कुरुक्षेत्र मे शस्त्र न उठाने का संकल्प यही दर्शाता है वे श्रेष्ठ अहिंसा प्रिय व्यक्ति थे, जहा भगवान श्री कृष्ण सत्य हितकर और धर्मयुक्त वेद सम्मत वचनो द्वारा सबका कल्याण करते थे)

वे उत्तम क्षत्रिय थे (स्वयं भीष्म पितामह राज्य सूय यज्ञ मे उनको वीरों मे वीर और युद्ध मे सभी राजाओं को अभिभूत करने हारा तथा शस्त्र विद्या मे श्रेष्ठ मानते थे। और सभा मे उपस्थित ज्ञान, बल, गुणों मे सबसे बड़ा और अपने से भी श्रेष्ठ की उपाधि देते हुए अग्रपूजन का अधिकारी घोषित करते है)

वे उत्तम वैश्य थे (भगवान श्री कृष्ण उत्तम गौ पालक थे, तथा वैश्य के सारे कार्य उन्हें ज्ञात थे , तथा इस ज्ञान से उन्होंने द्वारिका को अत्यंत समृद्ध बनाया था)

वे उत्तम शूद्र थे (महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ मे सारे ब्राह्मणों के चरण धोना, आदर से बिठाना सेवा सुश्रुषा करना, राजसूय यज्ञ मे सेवा करने मे अग्रणी होना क्या दर्शाता है? शरीर से सबकी सेवा करना ये तो सभी को उचित है )

अर्थात् भगवान श्री कृष्ण सच मे सर्वगुण संपन्न व्यक्ति थे।(गीता मे वे कहते है मेरे लिए कोई कर्म शेष नहीं रहा और मै कर्म इसलिए करता हूँ ताकि लोक भी मेरे देखा देखि कर्मो मे रत रहे। वे अकर्म की निंदा करते थे। ये कोई योगी सा ही कार्य दिख पड़ता है)

अब हम ये बताएँगे की क्षत्रिय भी योगी बन सकता है-

प्रश्न- श्री कृष्ण तो गृहस्थी और क्षत्रिय थे भला गृहस्थी और क्षत्रिय कभी योगी हो सकता है?

उत्तर- बिलकुल हो सकता है। ठीक ठीक समझने के लिये इन शब्द प्रमाणों को पढ़े -

➡️देखिये (यजुर्वेद ४/२९) मे ऋषि दयानन्द अर्थ करते है की सब मनुष्य शत्रुओ को दंड देते हुए और राग द्वेषादि से दूर रहते हुए उसे हिंसारहित भी बताते है-

• पदार्थान्वयभाषाः -हे जगदीश्वर ! आप के अनुग्रह से युक्त पुरुषार्थी होकर हम लोग (येन) जिस मार्ग से विद्वान् मनुष्य (विश्वाः) सब (द्विषः) शत्रु सेना वा दुःख देनेवाली भोगक्रियाओं को (परिवृणक्ति) सब प्रकार से दूर करता और (वसु) सुख करनेवाले धन को (विन्दते) प्राप्त होता है, उस (अनेहसम्) हिंसारहित (स्वस्तिगाम्) सुख पूर्वक जाने योग्य (पन्थाम्) मार्ग को (प्रत्यपद्महि) प्रत्यक्ष प्राप्त होवें ॥२९॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को उचित है कि द्वेषादि त्याग, विद्यादि धन की प्राप्ति और धर्ममार्ग के प्रकाश के लिये ईश्वर की प्रार्थना, धर्म और धार्मिक विद्वानों की सेवा निरन्तर करें ॥२९॥

• आगे, (यजुर्वेद ८/२३) मे भी भाषार्थ मे ऋषि जी लिखते है - राजा को कुक्रोध न करना चाहिए और निरपराधी को पीड़ा न दें और दुष्टो को दण्ड दिए बिना भी किसीको न छोड़े।

क्या ये सभीसे भी राजा या क्षत्रिय का योग भंग होता है बताइये? इससे भी यही समझमे आता है की न्यायमार्ग मे भी योगी बनना चाहिए। अर्थात् अधर्मी शत्रुओ को दण्ड देने से योग भ्रष्ट हो जाता है और दण्ड न देकर केवल देखते रहने से ब्रह्म आपको योगी मानेगा बताइये? आगे सब स्पष्ट करते है धैर्यता पूर्वक पढ़ते चले।

• पुनः इसीप्रकार (यजुर्वेद ५/५) तथा (यजुर्वेद ५/२२) मे ईश्वर मे अहिंसा आदि से अलग रहने के गुणकर्मस्वभाव का वर्णन बताया है, इससे क्या ये नहीं पता लगता की धर्म के रक्षण के लिए अधर्मी शत्रुओ को दंड देना अहिंसा का काम है,न की हिंसा का। और वैसा वैसा हमें भी करने का उपदेश दिया है। क्या परब्रह्म भी यम नियम का पालन नहीं करते या क्या वे भी योगी नहीं है??


• (यजुर्वेद ७/३९) मे पुनः वही समझाया है -

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर का आश्रय न करके कोई भी मनुष्य प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता। जैसे ईश्वर सनातन न्याय का आश्रय करके सब जीवों को सुख देता है, वैसे ही राजा को भी चाहिये कि प्रजा को अपनी न्याय व्यवस्था से सुख देवे ॥३९॥

अर्थात् राजा को ईश्वर के तुल्य योगी होकर न्याय से प्रजा का पालन करना चाहिये।

• इसीको अगले मन्त्र मे बताया है -

भावार्थभाषाः -जैसे मेघ वर्षा समय में अपने जल के समूह से सब पदार्थों को तृप्त करता हुआ उन्नति देता है, वैसे ईश्वर भी योगाभ्यास करनेवाले योगी पुरुष के योग को अत्यन्त बढ़ाता है ॥४०॥

➡️गृहस्थी के विषय पर-

• देखे (यजुर्वेद ७/२८) मे ऋषि दयानन्द क्या अर्थ कर रहे है -

भावार्थभाषाः -योगविद्या के विना कोई भी मनुष्य पूर्ण विद्यावान् नहीं हो सकता और न पूर्णविद्या के विना अपने स्वरूप और परमात्मा का ज्ञान कभी होता है और न इसके विना कोई न्यायाधीश सत्पुरुषों के समान प्रजा की रक्षा कर सकता है, इसलिये सब मनुष्यों को उचित है कि इस योगविद्या का सेवन निरन्तर किया करें ॥२८॥

• (यजुर्वेद ८/९) मे भी वही अर्थ कर रहे है-

भावार्थभाषाः -स्त्री और पुरुष विवाह से पहिले परस्पर एक-दूसरे की परीक्षा करके अपने समान गुण, कर्म्म, स्वभाव, रूप, बल, आरोग्य, पुरुषार्थ और विद्यायुक्त होकर स्वयंवर विधि से विवाह करके ऐसा यत्न करें कि जिससे धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त हों। जिसके माता और पिता विद्वान् न हों, सन्तान भी उत्तम नहीं हो सकते, इससे अच्छी और पूर्ण विद्या को ग्रहण कर के ही गृहाश्रम के आचरण करें, इस के पूर्व नहीं ॥९॥

अर्थात् पूर्ण विद्या करके पश्चात गृहस्थ मे जाए और ऐसे कर्म करें जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि हो। जो योगी होगा वही गृहस्थ का भी ठीक पालन करेगा।इसके लिए आगे देखे -

• (यजुर्वेद ८/३१)

भावार्थभाषाः -इस बात का निश्चय है कि ब्रह्मचर्य्य, उत्तम शिक्षा, विद्या, शरीर और आत्मा का बल, आरोग्य, पुरुषार्थ, ऐश्वर्य, सज्जनों का सङ्ग, आलस्य का त्याग, यम-नियम और उत्तम सहाय के विना किसी मनुष्य से गृहाश्रम धारा जा नहीं सकता। इसके विना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिये इस का पालन सब को बड़े यत्न से करना चाहिये ॥३१॥

यहाँ ऋषि ने गृहस्थ को यम नियम के पालन को कर्तव्य गिनाया है और वही (यजुर्वेद ८/१७) मे लिखा है शत्रुओ को जीते भी। इससे ये मानना उचित होगा की यम नियम सहित शत्रुओ को जीते।

• (यजुर्वेद ८/३३)

भावार्थभाषाः -गृहाश्रम के आधीन सब आश्रम हैं और वेदोक्त श्रेष्ठ व्यवहार से जिस गृहाश्रम की सेवा की जाय, उससे इस लोक और परलोक का सुख होने से परमैश्वर्य्य पाने के लिये गृहाश्रम ही सेवना उचित है ॥३३॥

➡️क्षत्रिय को मोक्ष प्राप्ति या संन्यास धारण का अधिकार नहीं होता तो यहाँ इन वेदार्थ मे ऋषि जी क्यों वर्णन कर रहे है? सीधे सन्यासियो को ही उपदेश करते, मोक्ष सम्बन्धी यहाँ विषय इसलिये बताया गया क्युकी वह भी सन्यासी और योगी हो सकता है। अतः श्री कृष्ण जी महाराज इन सभी वेदोक्त विधि पालन से ही योगी सिद्ध हो गए।

क्षत्रिय और गृहस्थी व्यक्ति यदि ब्रह्म को वेद द्वारा ठीक ठीक जान गया है, तो वो ब्राह्मण होने से सन्यास लेने का अधिकारी बन जाता है क्युकी अधिकार ही न होता तो सारे ऋषि - महर्षि क्षत्रियो और गृहस्थ को कभी धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को सिद्ध करने वाला न लिखते। 

(वाल्मीकि रामायण मे भगवान श्री राम के लिए समाधीमान शब्द आया है।

तथा भगवान श्री हनुमान जी के लिए योग सिद्धियो का वर्णन आया है।)

➡️ हनुमान जी सेवा करते थे तो वे योगी नहीं हो सकते!

समाधान - ये कैसा बेतुका तर्क है?? हम अभी दिखाते है आपकी बात वेद विरुद्ध है।

अर्थात् योगियों के सेवन से कोई अयोगी नहीं हो जाता उपरोक्त प्रमाण से।

और भी देखे -

छाँदोग्य उपनीषद पंचम प्रपाठक मे ब्रह्मवेत्ता राजा अश्वपति स्वयं ब्रह्म को पूर्ण रूप से जानकर ब्रह्म का यथार्थ स्वरुप औरो को उपदेश कर रहे है।और उपरोक्त प्रमाण से भी ब्रह्म को यथार्थ वही समझा सकता है जो वेदो का पूर्ण विद्वान और ईश्वर साक्षात्कार किया योगी हो। और राजा अश्वपति का परब्रह्म के विश्व रूप बतलाना और वही गीता मे कृष्ण जी का बतलाना - इन समानताओ से दोनों के योगी होने का अनुमान पता चलता है।

(Note-कुछ को गीता से भ्रान्ति हो जाति है की यहाँ कृष्ण जी स्वयं ईश्वर होते हुए विश्वरूप दिखला रहे है, तो ये वेद विरुद्ध है उनको यजुर्वेद ४०/८ मे ईश्वर का स्वरुप पढ़ना चाहिए। भगवान श्री कृष्ण ईश्वर नहीं, ईश्वर भक्त थे।)

इससे क्षत्रिय का योगी होना सिद्ध होता है।

महर्षि मनु स्वयं राजा होते हुए ऋषि थे, ऋषि होने के लिए योगी होना आवश्यक है।

योगदर्शन के व्यासभाष्य अनुसार ऋतम्भरा प्रज्ञा प्राप्त होने के बाद योगी को कही अविद्या नहीं सताती।

जो शास्त्रों मे बताया गया है वह शुरू शुरू मे योगाभ्यासी और सन्यासीयो के लक्षण है जिससे वैराग्य उत्पन्न होवें। 

अब एक लौकिक उदाहरण से समझे - जैसे आप cycle वा bike सीखते है तो शुरू शुरू मे आपको सावधानीया अधिक बताई जाति है और आप उसका पालन भी करते और जब आप इसमें पारंगत हो जाते है तो हाथ छोड़कर भी व्यक्ति cycle वा bike चलाने लगते है।

एक और तरह से समझाते है -

देखिये जैसे शुरू शुरू मे harmonium बजाने मे कठिनाईया आती है, लेकिन जैसे जैसे वह उसमे निपुण और अभ्यासी हो जाता है फिर वह बिना देखे वह उसे बजाने लगता है। और यहाँ तक की अँधेरे मे भी बजाने मे उसे कोई परेशानी नहीं होती।

वैसे ही सन्यासी और योगाभ्यासी को शुरू शुरू मे कई चिन्हो को अनिवार्य रूप से धारण करने होते है किन्तु वह वह नियम अति वैराग्यवान पूर्ण योगस्थ व्यक्ति पर लागू नहीं होती।

श्री कृष्ण परीक्षित के मृतप्राय होने पर स्वयं को आजीवन सत्यवादी रहने का प्रमाण देते है इससे यही प्रतीत होता है भगवान श्री कृष्ण या तो मोक्ष से पुनरावृति हुए या पीछे जन्म मे श्रेष्ठतम कर्मो का परिणाम से जन्म से उत्तम गुणकर्मस्वभाव सहित उत्पन्न हुए।

प्रश्न- फिर क्या पूर्ण योगी बनने पर वो शत्रुओ को दण्ड भी देगा?

उत्तर- पूर्ण योगी बनने पर वह अधर्म का ही सर्वप्रथम नाश करेगा। जैसा जैसा ईश्वर का स्वभाव है, पूर्णयोगी से भी स्वभावतः वैसे ही कर्म बनने लगेंगे। जो पूर्णयोगी होगा उससे ऐसे ही कार्य होंगे, वही राज्य भी ठीक ढंग से कर सकेगा, अन्य नहीं। इसलिए श्री कृष्ण को महाभारत मे योगेश्वर कहा गया है।

कहा तक सत्य से मुख मोडना चाहते है इन सब बातो पर विचार क्यों नहीं करते आप।

ऋषि दयानन्द तो एक गृहस्थी के धर्म मे भी अर्थ करते है वह संसार से विरक्त होना चाहिए, इन्द्रियों को जीतना चाहिए, पंच क्लेश दग्धबीज करने चाहिए। क्या सन्यासी होना गेरूये वस्त्र पहनने और सन्यास की नाम मात्र दीक्षा लेने से फलिभुत हो जाता है? कर्म को छोड़ देना सन्यास नहीं किन्तु संसार से आसक्ति का त्याग और श्रेष्ठ अनुकरणीय कार्य करना ही सन्यासी का प्रथम कार्य है। धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति हो वे सारे काम करने मे वेद की आज्ञा है फिर भगवान श्री कृष्ण अथवा कोई योगी इसे प्राप्त करें इसमें क्या गलत करता है?

क्या ईश्वर कम योगी है जो वो शत्रुओ का नाश और सज्जनो की रक्षा करता है या फिर इस वेद वचन को हम पालन करना नहीं चाहते जहा लिखा है - हम सभी ईश्वर के तुल्य योगी होवें। बताये क्या ईश्वर भी योगी नहीं है?

योगी कहा जाता है जो योग दर्शन मे वर्णित अष्टांग योग का अनुसरण करता है, भगवान श्री कृष्ण सभी अष्टांग योग का पालन करते थे,महाभारत मे उनकी दिनचर्या स्वयं पढ़ लेवे, लेख के विस्तारभय से उन सभी श्लोको को नहीं दें रहे। 

यदि नहीं करते थे तो दिखाइए कहा विरुद्ध कार्य किया उन्होंने। हमारे पक्ष मे महर्षि वेद व्यास ( योगदर्शन के भाष्यकार) का प्रमाण है जो उन्हें योगेश्वर(योगियों मे श्रेष्ठ), अच्युत, आदि विशेषण लिखते है। जबतक आप हमारे इस प्रमाण का खंडन नहीं करते तबतक हमारा पक्ष निर्बल होने वाला नहीं है। 

➡️ वैशेषिक दर्शन हमें सिखाती है- पहले अभ्युदय को प्राप्त करो फिर मोक्ष होगा। (अभ्युदय कहते है सांसारिक उन्नति को) जिस अभ्युदय का मूल कारण धर्म है, धर्म को साधन बनाकर अर्थ और काम को सिद्ध करना सबको उचित है तभी उसके बाद मोक्ष(निःश्रेयस) की प्राप्ति होगी। और जिसने धर्म और अर्थ की प्राप्ति नहीं की, उसका मोक्ष नहीं होने वाला।

ये तो हुआ वैशेषीक सिद्धांत। 

वेद कहता है सभी मनुष्य अग्नि विद्या पढ़े,शिल्प विद्या पढ़े और उससे बड़े बड़े अस्त्र शस्त्र सिद्ध करें।यदि शिल्पी भी योग विद्या को पढता और जानता है तथा साथ ही शिल्प विद्या से धर्म हेतु लोकोपकार करता रहे अथवा जीविका चलाये तो वह भी योगी होने योग्य है। सिद्ध योग को प्राप्त हुआ हर क्षेत्र का व्यक्ति योगी होने का अधिकारी है। क्या महर्षि भारद्वाज, महर्षि विश्वाकर्मा जी विमान शास्त्र, स्थापत्य वेद आदि विद्याओ का प्रकाश करने से अयोगी कहलाये जाये?

मीमांसा मे वर्णित श्रेष्ठ यज्ञ योगी न करें तो संसार का अत्यंत भला कैसे हो सकेगा? तथा मीमांसा मे वर्णित कर्मकांड से मुँह फेरने मात्र से योग सिद्धि हो जाति है? क्या जितने शास्त्र महर्षियो ने प्रकाशित किये है, वे सब योग से भटकाने वाले है, क्या वे ऋषि भी अयोगी थे जो ये सब कार्य कर रहे है समाधी आदि लगाने के बजाये? ये कैसी अपनी मनमानी है?

वेद और ऋषियों ने योगी को इन सबका निषेध कहा बताया है दिखाएंगे जरा!

अब आप हो सकता है सांख्य का प्रमाण लाये वो भी अनुचित नहीं है किन्तु क्या महर्षि जैमिनी कृत मीमांसा और महर्षि कणाद कृत वैशेषीक दर्शन प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है? ऋषियों मे आज के मतवादियों के तुल्य विरोधाभास नहीं होता। ऋषियों ने अनेक मार्ग से मोक्ष प्राप्ति बतलाई है। पृथ्वी से ईश्वर पर्यंत सब पदार्थ विद्या को ठीक ठीक जानना और सिद्ध करना - यह भी मोक्ष मे अत्यंत सहायक है। 

हमें शास्त्रों मे अनेकत्र "राजर्षि" यह शब्द देखने मिलता है।

राजर्षि अर्थात् ऋषियों के तरह आचरण सहित राजविद्या का ज्ञाता। ऐसा कर्मयोगी जो अपने राज्य करने युक्त कर्तव्य कर्म सहित अष्टांग योग का पालन करता हो।जैसे महर्षि मनु, महाराज जनक, महाराज रामचंद्र आदि।

• भगवान श्री कृष्ण ने गीता मे दो प्रकार के योगी का वर्णन किया है - कर्मयोगी और दूसरा सांख्य योगी।

भगवान श्री कृष्ण निष्काम कर्म करते हुए कर्मयोग के माध्यम से मोक्ष हेतु अर्जुन को उपदेश करते है। जिसप्रकार मीमांसा दर्शन कर्मकांड द्वारा मोक्षप्राप्ति बतलाता है। श्री कृष्ण जी गीता मे ऐसे समाधी मे स्तिथ होकर बोल रहे थे जैसे हर वाक्य मे स्वयं उनके मुख से परमेश्वर ही बोलवा रहा हो।वे किसी क्षण ब्रह्म से स्वयं को अलग न करते थे,न ही मानते थे।पद पद मे ईश्वर की सी उपदेश शैली। जैसे वेद मे ईश्वर ने अनेकत्र "मै ईश्वर तुम मानवो को आज्ञा करता हूँ" ऐसे कहा वही श्री कृष्ण ने उसे समझाते हुए की परमपिता परमेश्वर यह कह रहे है -मै ईश्वर तुम मानवो को आज्ञा करता हूँ" किन्तु इसमें लोगो को भेद समझने मे भ्रान्ति हो जाति है फिर श्री कृष्ण जी 7/24, 13/2, 18/61-62 इन श्लोको मे समझाते है "मै जीव ही हूँ" फिर पुनः आप क्यों नही समझते?

अब देखिये श्री कृष्ण जी क्या कह रहे है-

सन्न्यासस्तु...........।

....नचिरेणाधिगच्छति।।

अर्थात् हे अर्जुन!कर्मयोग के बिना सन्यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होनेवाले संपूर्ण कर्मोमे कर्तापनके त्याग प्राप्त होना कठिन है और ब्रह्मस्वरुप को मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्माको शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।


योगयुक्तो विशुद्धात्मा.....।

................... न लिप्यते।। (गीता 5:07)

अर्थात् जिसका मन अपने वशमे है, जो जितेंद्रीय एवं विशुद्ध अंतःकरणवाला है और संपूर्ण प्राणियोंका आत्मरूप परमात्मा जिसका आत्मा समान है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता।

वही हम कह रहे है की कृष्ण जी कर्मयोगी थे और उसीका अर्जुन को भी उपदेश करते, गीता मे कोई युद्धनीति वाली बात नहीं समझा रहे थे जिससे युद्ध जीता जा सके बल्कि वे तो जय पराजय, लाभ हानि, आदि मे स्तिथप्रज्ञ होकर योग की शिक्षा कर रहे थे। जो की योगी होने का एक और लक्षण देखने मे आता है।

प्रश्न-युद्ध क्षेत्र मे कृष्ण जी युद्ध छोड़कर योग के तत्त्व को क्यों समझाने लगे?

उत्तर- अर्जुन की युद्ध की अभिलाषा नहीं थी और युद्ध करना अर्जुन को भलीभाती आता ही था उसे बस योगनिष्ठ निश्चय से हटकर परिवारजनों का मोह तथा कर्तव्य-अकर्तव्य मे संशय उत्पन्न हो गया था, उसे ही भगवान श्री कृष्ण जी ने उसे स्मरण करवाया। क्या आपने इस 2/42-43 श्लोको को कभी सच्चे निष्पक्ष हृदय से जाँचा? एक योगी ही अपने उपदेशो मे निष्कामयोगप्रधान विषय रखता है यदि मात्र क्षत्रिययों का धर्म याद दिलाते होते तो परम पद और योग विशेष की बात बार बार न करते रहते युद्ध क्षेत्र मे। गीता मे वे क्षत्रियो के लिए परम हितकर योग विद्या का उपदेश दें रहे थे अर्जुन को वही धर्म याद दिलाकर वे उसे कर्तव्य की ओर प्रवृत कर रहे थे। क्षत्रियों को क्या फल प्राप्त होता है? राज्य सुख आदि जबकि अर्जुन पूर्व ही कह चूका था मुझे ये राज्य सुख चाहिए ही नहीं, फिर मै युद्ध क्यों करू। तब श्री कृष्ण ने उसे कर्म योग का उपदेश दीया। क्या उसे भी न मानकर अज्ञानता का प्रदर्शन करना उचित बात है? अब आप यदि ये विचार करते है की पूरी गीता को अप्रमाणिक कह देंगे फिर क्या होगा? इसपर एक व्यक्ति ने पूर्व ही चेष्टा किया था तब ऋषि दयानन्द ने उसे शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी और सत्यार्थ प्रकाश मे भी यत्र तत्र गीता के श्लोक प्रमाण रूप मे प्रयोग करते है, इससे ये सिद्ध हुआ ऋषि दयानन्द गीता को प्रामाणिक मानते थे। यद्यपि उसमे प्रक्षेप है किन्तु गीता तो संपूर्णतः योग के ओर ही इंगित करती है।


सत्यार्थ प्रकाश के एकादश सम्मुलास मे लिखा है - भगवान श्री कृष्ण का चरित्र आप्त पुरुषो के सदृश था अब यहाँ महर्षि का तात्पर्य वेद युक्त आचरण से था। चुकी वेद वेदांग आदि के तत्त्वज्ञ तो वे थे ही, अतः वेद विषय मे उनको आप्त मानना चाहिए। तथा वे ये भी लिखने से नहीं रुके की " श्री कृष्ण ने जन्म से लेकर मरण पर्यंत कोई गलत काम किया ऐसा कही नहीं लिखा।" अर्थात् इससे क्या आया? क्या कोई अविद्या युक्त व्यक्ति या अयोगी मे ये वाक्य घट सकता है?

भला 16 कलाओ मे पारंगत व्यक्ति योगी नहीं कहलाया जायेगा ये कहा तक उचित है? वेदो को जानने वाला ब्रह्मज्ञानी ही हो सकता है अन्य नहीं, अतः हम कृष्ण जी को ब्रह्मवेत्ता भी मानते है।

ऋषि की एक ही इस सुन्दर वाक्य से भगवान श्री कृष्ण के योगी होने की सिद्धि हो जाति है यदि ठीक विचार करा जाये।वही महर्षि दयानन्द आर्योद्देश्यरत्नमाला तथा ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका मे आप्त शब्द का अर्थ महायोगी करते है।





आक्षेप- ऋषि दयानन्द ने कही पर भी श्री कृष्ण को योगी नहीं लिखा है।

समाधान- कृष्ण जी योगी नहीं थे इसका कही निषेध किया है? या खंडन किया है तो दिखाइए, यदि नहीं दिखा पा रहे है तो अपने मत को ऋषि के मत कहकर न प्रस्तुत किया करें। कौन कहता है ऋषि ने कृष्ण जी को योगी नहीं माना?

महर्षि दयानन्द अपने वेद विरुद्ध मत खंडन ग्रन्थ मे लिखते है

इसपर महाभारत से प्रमाण -

मेने ततः संक्रमणस्य कालं ततश्चकारेन्द्रियसं निरोधम्।।२०।।

👉 योगीराज श्री कृष्ण जी ने अब अपनी मृत्यु का समय समीप ही समझा, अतः उन्होंने अपने सम्पूर्ण इंद्रिय वृत्तियों का निरोध किया।


स संनिरुद्धेन्द्रियवाङ्मनांसि शिश्ये महायोगमुपेत्य कृष्णः।।२१।।

👉 अपने मन, वाणी और इन्द्रियों का निरोध कर के महायोग अर्थात् समाधि का आश्रय ले कर धरती पर लेट गए।


जराथ तं देशमुपाजगाम लुब्धस्तदानीं मृगलिप्सुरुग्रः।

स केशवं योगयुक्तं शयानं मृगासक्तो लुब्धकः सायकेन।। २२।।

जराविध्यत् पादतले त्वरात्वांस्तं चाभितस्तज्जिघृक्षुर्जगाम।

अथापश्यत् पुरुषं योगयुक्तम् पीताम्बरं लुब्धकोऽनेकबाहुम्।।२३।।

👉 उसी समय जरा नामक एक भयंकर व्याध मृगों को मारकर ले जाने की इच्छा से उस स्थान पर आया। उस समय श्रीकृष्ण योगयुक्त हो कर सो रहे थे। मृगों में आसक्त हुए उस व्याध ने श्रीकृष्ण को भी मृग ही समझा और बड़ी उतावली के साथ बाण मार कर उनके पैर के तलवे में घाव कर दिया। फिर इस मृग को पकड़ने के लिए जब वह निकट आया, तब योग में स्थित, अनेकबाहु अर्थात् महान पराक्रमी, पीतांबर धारी पुरुष भगवान श्री कृष्ण पर उसकी दृष्टि पड़ी।


मत्वाऽऽत्मानंत्वपराद्धं स तस्य पादौ जरा जगृहे शंकितात्मा।

आश्वासयंस्तं महात्मा तदानीं गच्छन्नूर्ध्वं रोदसी व्याप्य लक्ष्म्या।।२४।।

👉 अब तो जरा अपने को अपराधी मान कर मन ही मन बहुत डर गया। उसने भगवान श्री कृष्ण के दोनों पैर पकड़ लिए। तब महात्मा श्री कृष्ण ने इसे आश्वाशन दिया और अपनी कांति अर्थात यश से पृथ्वी और आकाश को व्याप्त ऊर्ध्वलोक अर्थात् मोक्ष को चले गए।

[महाभारत मौसलपर्व अध्याय ४]

मोक्ष योगी का ही होता है। इसलिए महाभारत मे महर्षि वेदव्यास ने उन्हें योगेश्वर कहा -

यत्र योगेश्वरः कृष्णो तत्र पार्थो धनुर्धरः। ...(गीता 18.78)

क्षत्रिय को मोक्ष प्राप्त होता है देखिये पंडित लेखराम कृत ऋषि जीवन चरित्र मे ऋषि दयानन्द स्वयं कहते है -

अब हम व्यवहार भानु से भी प्रमाण देते हैं कि राजा मोक्ष को प्राप्त कर सकता है-

अब राजा अच्छी प्रकार न्याय कैसे करेगा इसपर वेद का प्रमाण ऊपर दें चुके है। 🙏

अब पुनः विचार करते है महर्षि ने कहा है पंचम सम्मुलास मे कि, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र को मोक्ष पाने के लिए ब्राह्मण बनना पड़ेगा और संन्यास लेना पड़ेगा तब जाकर मोक्ष होगा। इससे क्या समझमे आया की वेद और ब्रह्म को जानने वाला राजा भी मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। 

तो जिस युग मे साक्षात् ऋषि महर्षि जिनके निकट मौजूद हो तथा जिनका नित्य प्रति विद्वान सतपुरुषों से मिलना जुलना रहता था और जिसने वेद वेदांग आदि पढ़ लिए हो उसको नहीं समझ आयी ये बात किन्तु आपको समझ गयी वाह जी! क्या तर्क अनुमान लगाया आप लोगो ने, मानना तो पड़ेगा ही अबकी बार। मेरा मत है जिसने वेदो के तत्त्व रूप से पढ़ाई की है उस सामान्य अयोगी को भी पता होता है सही क्या है और गलत क्या है और फिर धर्मपालक अच्युत आप्त भगवान श्री कृष्ण को क्यों नहीं ज्ञात होगा की सन्यासियो ब्राह्मणों का ही मोक्ष होता है बता दीजिये।

 सन्यास के लिए दीक्षा लेने मात्र से सभी को मोक्ष हो जाता तो हर सन्यासी आज मोक्ष मे होता, वैरागी ही सच्चा सन्यासी है। सन्यास भी गुणकर्मस्वाभाव(लक्षणो) से माना जायेगा। वस्त्रो से वैराग्य उत्पन्न नहीं होता, और हिमालय की कंदराओ मे रहने से भी राग द्वेष नहीं जाता ये सब तो बाह्य चीजे है, गेरूये रंग के वस्त्र पहनने मात्र से न कोई योगी हो जाता है, न ही सर्वथा नग्न रहने से ही हुआ है यह प्रत्यक्ष अनुभव है। और उच्च वैराग्य प्राप्त व्यक्ति लोक मे वा गृहस्थ मे रहते हुए भी सन्यासियो सा जीवन व्यतीत करता है, वह योगी जिसप्रकार कमल का पत्ता पानी से स्पर्श से लिप्त नहीं होता उसीप्रकार सांसारिक बंधनों मे वह योगी नहीं फसता और फिर भी कर्म करता रहता है ।सन्यास वस्त्रो का विषय ही नही परन्तु मन का विषय है। उदाहरण के लिए देखिये महर्षि दयानन्द स्वयं सन्यासी थे वे भी तो साज सज्जा युक्त वस्त्र पहनते हुए चित्र आदि मे देखे जाते है। तत्त्वज्ञान की प्राप्ति और वैराग्य से तो योगी जगत से कभी लिप्त नहीं होता। अब सोचिये महर्षि दयानन्द कौपिन पहनकर लोगो के बिच जाते तो लोक क्या शिक्षा ग्रहण करती इससे वे लोक के आचार हेतु भी थोड़े वस्त्र पहनना आरंभ कर दिए इससे कृष्ण जी भी सन्यासी होते हुए लोक के लिए कर्म करते थे ताकि लोक भी कर्मो मे रत रहे, इसलिए उत्तम शिष्टाचार प्रस्तुत करते थे।

योगी अधर्मियों को युद्ध मे नहीं मारेगा तो धर्म स्थापना हो जायेगा? भला अधर्मियों को मारने मे कौनसा दोष है? न्यायपूर्वक धर्मरक्षण हेतु दंड देना तो अहिंसा मे ही आता है। जो राजा योगी होगा वही राज्य करने योग्य होगा। क्षत्रिय को योगी होना ही चाहिए- महाराज मनु, महाराज शिव जी, विष्णु जी, श्री रामचंद्र, श्री हनुमान जी , श्री कृष्ण, श्री जनक, राजा अश्वपति, राजा इंद्र, आदि इतने सारे योगिराज हुए है।

भगवान श्री कृष्ण न होते तो पांडव(धर्म पक्ष) कभी विजीत न होते तो क्या योगी का ये कर्तव्य नहीं की अधर्म को रोके? फिर भगवान श्री कृष्ण पर दोष क्यों लगाते है इससे, उन्होंने पूर्व ही शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी।

आप कृपया ब्राह्मण शब्द का यहाँ रूढ़ अर्थ न लेवे।

क्या आपने कभी शांतिपर्व पढ़ा? जिसमे महाराज युधिष्टिर अपने भीष्म पितामह से अहिंसा पूर्वक योग युक्त राज्य शासन एवं प्रजा के रक्षण की विधियों का उपदेश सुनते है। उन उपदेशो मे जो ज्ञान वर्णित है वह वेदानुकूल होने से मिलावटी नहीं माना जा सकता।

क्षत्रिय वर्ण का व्यक्ति सन्यास ग्रहण नहीं कर सकता तो इसपर हम कुरुकुलराजर्षिशिरोमणि भीष्म पितामह ने जो महाराज युधिष्टिर को बताया वही महाभारत शांति पर्व अध्याय 319- 320 मे इसका भी वर्णन है यहाँ इनमे महायोगी पंचशीख, महाराज जनक,सन्यासीनी सुलभा का संवाद रूप इतिहास मिलता है। जिसमे राजा जनक को राज्य शासन और गृहस्थ मे रहते सन्यासीयों के सदृश फल प्राप्ति का इतिहास मिलता है।वही से पढ़ लेवे।

संन्यासफलिकः कश्चिद् वभूव नृपतिः  पुरा।

मैथिलो जनको नाम धर्मध्वज इति श्रुतः।।

अर्थात् प्राचीन काल मे मिथिलापूरीके कोई एक राजा जनक हो गए है, जो धर्मध्वज नाम से प्रसिद्ध थे। उन्हें (गृहस्थाश्रम मे रहते हुए भी) संन्यासका जो सम्यग्ज्ञानरूप फल है, वह प्राप्त हो गया था।

इसके अगले श्लोक - स वेदे मोक्षशास्त्रे० अर्थात् राजा जनक ने मोक्षशास्त्रमे तथा अपने शास्त्र (दंडनीति) मे भी बड़ा परिश्रम किया था। वे इन्द्रियोंको एकाग्र करके इस वसुंधराका शासन करते थे।

और जनक जी कहते है -

काषायधारणं मौण्ड० आदि श्लोक कहे अर्थात् मेरा तो यह धारणा है की गेरूये वस्त्र पहनना, मस्तक मुड़ा लेना तथा त्रिदंड और कमंडल धारण करना - ये सब उत्कृष्ट संन्यासमार्गका परिचय देने वाले चिन्हमात्र है। इनके द्वारा मोक्षकी सिद्धि नहीं होती।

आकिंचन्ये न मोक्षो० अर्थात् न तो अकिंचन मे मोक्ष है और न किंचनता मे बंधन ही है धन और निर्धनता दोनों ही अवस्थाओ मे ज्ञान से ही जीव को मोक्ष प्राप्ति होती है।

अथ धर्मयुगे तस्मिन् योगधर्ममनुष्ठिता ।

महीनचचारौका सुलभा नाम भिक्षुकी।।

अर्थात् वह धर्मप्रधान युग समय था। उन दिनों सुलभा नामवाली एक सन्यासीनी योगधर्मके अनुष्ठान द्वारा सिद्धि प्राप्त करके अकेली ही इस पृथ्वीपर विचरण करती थी।

और राजा जनक से सुलभा नामक महायोगिनी सन्यासी कहती है-

नास्मि वर्णोत्तमा जात्या.....।

..................शुद्धयोनिरविप्लुता।।१

प्रधानो नाम.......।

......... विद्धि माम्।।२

अर्थात् राजन!मै जाति से ब्राह्मणी नहीं हूँ और न वैश्या अथवा शूद्रा ही हूँ। मै तो आपके समान वर्णवाली क्षत्रिया ही हूँ। मेरा जन्म शुद्ध वंश मे हुआ है और मैंने अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया है। १

आपने प्रधान नामक राजर्षिका नाम अवश्य सुना होगा। मै उन्हींके कुलमे उत्पन्न हुई हूँ। आपको मालुम होना चाहिए मेरा नाम सुलभा है।२


अब जैसे इन सब जगह क्षत्रिय का संन्यास का अधिकार प्रकट हो रहा है तो कृष्ण जी मे भी माने। तथा इतिहास मे याज्ञवल्क्य, गौतम, वशिष्ठ आदि ऋषि हुए जो गृहस्थ मे रहते हुए बंधनरहित और योगी थे, जब वहां गृहस्थ कार्य करते हुए व्यक्ति वैरागी और सन्यासी तुल्य योगीवृत रह सकता है तो भगवान श्री कृष्ण आदि क्षत्रिय मे दंड सहित ये गुण क्यों नहीं मानते आप??

अंत मे यही कहेँगे ऋषि दयानन्द ने 11 सम्मुलास मे भगवान श्री कृष्ण के चरित्र को अत्युत्तम कहा और ये भी कहा की उन्होंने जन्म से लेकर मरणपर्यंत कोई भी अधर्म नहीं किया। ऋषि दयानन्द उन्हें सत्पुरुष मानते थे इसलिए उन्हें आप्त संज्ञा दी है। 

वही 'आप्त' का अर्थ ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका और आर्योद्देश्यरत्नमाला मे सत्यवादी और महायोगी करते है।

अब कोई कहे आप्त तो धोबी भी हो सकता है तो यहाँ पर प्रसंग आचरण का चल रहा है और श्री कृष्ण कोई धोबी का कार्य नहीं करते थे, वे पूर्ण वेद- वेदांग आदि सभी शास्त्रों मे तत्त्वज्ञ, बल मे सबसे बलवान, विश्वजीत, अच्युत, ब्रह्मचर्यवान, दान मे सबसे श्रेष्ठ और योगियों मे योगेश्वर (योगियों मे भी श्रेष्ठ) ऐसा महाभारत मे लिखा है। फिर आप इनमे कौनसा आप्तता सिद्ध कर रहे है??  आप्त के वचन को शब्द प्रमाण कहते है और गीता को आप मानते नहीं, तो महाभारत मे उन्होंने कपडे धोने या खाना बनाने का उपदेश तो दिया नहीं था। गीता मे ब्रह्म और योग की बाते प्रधान थी जिससे वे योगी ही सिद्ध होते दिख पड़ते है। एक महात्मा को साधारण पुरुष बनाने मे आपको लज्जा आनी चाहिए। जिसके ऊपर मिथ्या दोष मढ़ने से ऋषि ने सबका खंडन किया और आप उन्हें अयोगी, साधारण बनाते फिर रहे है, ऋषि दयानन्द साधारण व्यक्ति पर लेखनी चलाएंगे क्या?

एक ऐसा महापुरुष जो कभी निराश नहीं हुआ, जो जन्म से दिव्य गुणों से संपन्न तथा उत्तम कूलमे उत्पन्न हुआ, जिनकी गुरुकुलीय शिक्षा ऋषि महर्षियो योगियों के चरणों मे हुई। तथा जिसकी पुरुषार्थ का गाथा कुछ इसप्रकार गाया जाता है की बिना शस्त्र उठाये ही महानीतिज्ञ धर्मज्ञ ने पूरा खेल ही पलट डाला। जिसने बड़े से बड़े अधर्मीयों को बिना किसीकी सहायता मांगे धूल मे मिला दिया, और जिसने सबकी सहायता उपकार किया, लेकिन कभी कही का राजा न बना। कोई इतना उत्तम कैसे हो सकता है? महर्षि के शब्दों मे कहु तो "अत्युत्तम" = अति + उत्तम (अर्थात् जो उत्तमता ही सीमा का अतिक्रमण कर गया हो) ऐसे महामानव को कुछ लोग साधारण मनुष्य की संज्ञा दें रहे है। कैसी प्रमाद और मूर्खता है ये।

जिसने जीवन मे कभी अधर्म नहीं किया हो वह योगी अर्थात् अच्युत जिसका विशेषण है। जो आप्त सदृश थे जिनके कर्म इतने अद्भुत और श्रेष्ठ थे जो पुरुषो मे उत्तम पुरुषोत्तम थे जिनके जोड़ का तोड़ धरती पर किसीको पितामह भीष्म जैसे अजेय महावीर तुलना न कर सके। जिनकी राज्य सूय यज्ञ मे महर्षि वेद व्यास के जगह अग्रपूजन हुई तथा जिसको महर्षि व्यास विश्वजीत लिखते है, और उनके श्रेष्ठ आचरण युक्त अनुकुरणीय कर्म पढ़कर सहस्रो सहस्रो वर्षो तक लोग उन्हें ही ईश्वर बना बैठे, वो योगी नहीं थे तो कौन थे?

धर्म के सच्चे पालक योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण जी महाराज के नाम,कीर्ति और सुयश को बदनाम मत करे। (जिसकी श्रेष्ठता की छाप युगो-युगो तक नहीं मिट सकी उन सभी क्षात्र योगियों को अपमानित न करें) निश्चय ही इससे उनकी श्रेष्ठता का आभास हो जाना चाहिए। व्यर्थ से आक्षेप करने से पूर्व उनकी योग्यता और अपनी योग्यता पर भी विचार करना आवश्यक समझना चाहिए।

अतः अंत मे यही कहकर विराम देते है - भगवान श्री कृष्ण को शत शत प्रणाम करके उनके तुल्य बनने हेतु ईश्वर से प्रार्थना एवं आचरण करे , अस्तु। 🙏

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(इसी विषय पर भाग २ भी लाने का विचार है .......!!)


सभी को सादर नमस्ते जी । 🙏🙏🙏