🔥#काशी_शास्त्रार्थ_संपूर्ण_विवरण🔥(१६ नवम्बर, सन् १८६९)
#स्वामी_दयानंद_की_विजय_और_पंडितों_का_कपट - महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र, पंडित लेख राम, पृष्ठ ५६२-५६७
एक दयानन्द सरस्वती नामक संन्यासी, जो गंगा के तट पर विचरते होते हैं, सत्पुरुष और सत्य शास्त्रों के जानने वाले हैं। उन्होंने समस्त ऋग्वेद आदि का विचार किया है। वे सत्य शास्त्रों को देख और निश्चय करके ऐसा कहते है कि पत्थर आदि की मूर्ति का पूजन, शिव, शक्ति, गणपति और विष्णु आदि सम्प्रदाय बनाने का और रुद्राक्ष, तुलसीमाला, त्रिपुंड्र आदि धारण करने का वर्णन कहीं भी वेदों में नहीं है। इससे पता लगता है कि ये सब (बातें) मिथ्या ही है; ऐसी मर्यादा वेदों में लिखी है। इस कारण हरिद्वार से लेकर सब कहीं इसका खण्डन करते हुए, उक्त स्वामी जी काशी नगर में आयें और दुर्गाकुंड के समीप बाग में निवास किया। उनके आने की धूम मची। बहुत से पंडितों ने वेदों की पुस्तकों में विचार करना आरम्भ किया, परन्तु पाषाण आदि की, मूर्ति की पूजा का विधान कहीं भी नहीं मिला।
चूंकि पाषाण पूजा का लोगों को बहुत (आग्रह) है, इसलिए काशी महाराजा ने समस्त बड़े-बड़े पंडितों को बुलाकर (उन से) पूछा कि इस विषय में क्या करना चाहिये? तब सबने निश्चय करके यह कहा कि किसी न किसी प्रकार दयानन्द स्वामी से शास्त्रार्थ करके चिरकाल से प्रचलित प्रथा को जैसे भी सम्भव हो, स्थापित रखना चाहिये।
यह मन में ठान कार्तिक सुदि द्वादशी, संवत् १९२६, मंगलवार (१६ नवम्बर, सन् १८९६) को महाराज काशी नरेश बहुत से पण्डितों को साथ लेकर स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के अभिप्राय से गये । तब #दयानन्द_स्वामी ने महाराज से पूछा कि आप वेदों की पुस्तक ले आये या नहीं?' #महाराज ने कहा कि 'वेद समस्त पंडितों को कण्ठस्थ हैं; पुस्तक का क्या प्रयोजन है?' #दयानन्द_स्वामी ने कहा "पुस्तक के बिना पूर्वापर के विषय का विचार ठीक-ठीक न होगा। अस्तु, पुस्तक नहीं लाये तो, न सही !”
तत्पश्चात् पण्डित रघुनाथप्रसाद कोतवाल ने यह नियम निश्चित किया कि स्वामी जी से एक-एक पण्डित विचार करें।
शास्त्रार्थ में दो अंग्रेज पादरी भी उपस्थित थे। काशी के २७ प्रसिद्ध पण्डितों ने शास्त्रार्थ में योग दिया था। इन सभी २७ पंडितों को अकेले स्वामी दयानंद ने शास्त्रार्थ में आगे धूल चटा दी।
प्रथम #पंडित_ताराचरण_दार्शनिक, शास्त्रार्थ के लिए स्वामी जी के सामने आये। #स्वामी_जी ने उनसे पूछा कि वेद को प्रमाण मानते हो या नहीं?" #पंडित_ताराचरण - वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले सभी वेदों को प्रमाण मानते ही हैं। #स्वामी_जी - वेद में पाषाण आदि की पूजा का जहां प्रमाण हो, वह (स्थल) दिखलाइये । जो न हो, तो कहिये कि नहीं है। #पं०_ताराचरण - वेदों में ऐसा प्रामाणिक हो या न हो, यह तो अलग प्रश्न है; परन्तु जो व्यक्ति यह कहे कि केवल वेद ही प्रमाण है, इसको क्या कहा जाये?
(अर्थात् पंडित जी इस प्रश्न का उत्तर न दे पाए और विषय को परिवर्तित कर किया।)
#स्वामी_जी - औरों का विचार पीछे होगा, वेदों का विचार मुख्य है, इसलिए इस बात का पहले विचार करना चाहिये क्योंकि वेदोक्त कर्म ही मुख्य हैं, दूसरे ग्रंथों के बताए कर्म गौण हैं। वे वेदानुकूल होने ही से माने जा सकते हैं। इसलिए यदि वेद में प्रतिमा पूजन की आज्ञा नहीं है, तो उसका पूजन नहीं करना चाहिए और मनुस्मृति आदि भी वेदमूलक हैं; इस कारण ये भी प्रामाणिक हैं, परन्तु वेद के विरुद्ध और वेद-अप्रसिद्ध प्रामाणिक नहीं है।
#ताराचरण-मनुस्मृति का वेद में कहां मूल है? (पुनः विषय को वेद से हटाकर मनुस्मृति की ओर ले गए।) #स्वामी_जी - 'यद् वै किंचन मनुरवदत्तद्भेषजं भेषजताया:'--अर्थात् जो कुछ मनु ने कहा है, सो औषधियों की औषधि है, ऐसा सामवेद के छान्दोग्य ब्राह्मण में कहा है।
#विशुद्धानन्द_जी - 'रचनानुपपत्तेश्च नानुमानम्" अर्थात् रचना की अनुपपत्ति-असिद्धि होने से अनुमान-प्रतिपाद्य, प्रधान, जगत् का कारण नहीं, व्यास जी के इस सूत्र का वेदों में कहां मूल है? स्वामी जी - यह प्रकरण से पृथक् बात (अप्रासंगिक) इस पर विचार करना न चाहिए। विशुद्धानन्द - जो तुम जानते हो, तो अवश्य कहो । स्वामी जी ने देखा कि शास्त्रार्थ मूर्तिपूजा से हटकर दूसरी ओर चला जायेगा; इसलिए न कहा और कह दिया कि यदि कोई बात किसी को स्मरण न हो, तो पुस्तक देखकर कही जा सकती है। #विशुद्धानन्द - जो स्मरण नहीं था, तो काशी नगर में शास्त्रार्थ करने को क्यों तैयार हुए?
#स्वामी_जी - क्या आपको सब कण्ठस्थ हैं ? #विशुद्धानन्द - हम को सब कण्ठस्थ है। #स्वामी_जी - कहिये; धर्म का क्या स्वरूप है ? विशुद्धानन्द - वेदप्रतिपाद्य, सप्रयोजन अर्थ 'धर्म' कहलाता है। #स्वामी_जी - यह तो आप की संस्कृत (आपका अपना संस्कृत वाक्य) है । इस का भला क्या प्रमाण? श्रुति वा स्मृति (का जो प्रमाण कण्ठस्थ हो वह) कहिये #विशुद्धानन्द - 'चोदना लक्षणार्थो धर्म:"- अर्थात् चोदना लक्षण लिये जो अर्थ हो सो, धर्म कहलाता है; यह जैमिनि सूत्र है। #स्वामी_जी - चोदना का अर्थ प्रेरणा का है, जहां प्रेरणा होती है, वहां श्रुति अथवा स्मृति (का प्रमाण) कहना चाहिए। इस पर विशुद्धानन्द स्वामी ने कुछ भी नहीं कहा।
तब #स्वामी_जी ने कहा-'अच्छा जाने दीजिए। आप यह कहिये कि धर्म के कितने लक्षण हैं ? #विशुद्धानन्द - धर्म का एक ही लक्षण है। #स्वामी_जी - वह क्या है ? #विशुद्धानन्द_स्वामी - फिर मौन हो गये। #स्वामी_जी - धर्म के तो दश लक्षण हैं; आप एक कैसे कहते हैं? #विशुद्धानन्द - वे दश लक्षण कौन-कौन से हैं? #स्वामी_जी ने मनुस्मृति का श्लोक पढ़ा और कहा धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध - ये दश धर्म के लक्षण हैं।
तब #बालशास्त्री ने कहा - हमने सब धर्मशास्त्र देखा है। #स्वामी_जी - आप अधर्म का लक्षण कहिये । बालशास्त्री ने उसका कुछ उत्तर न दिया। फिर बहुत से पण्डितों ने हल्ला करके इकट्ठे (एक साथ मिलकर) पूछा कि वेदों में 'प्रतिमा' शब्द है या नहीं?
स्वामी जी - 'प्रतिमा' शब्द तो (वेद में) है।
उन लोगों ने पूछा कि कहां पर है?
(खेद है कि काशी के पंडित और वेदों के विषय में इतनी अज्ञानता ! और फिर 'प्रतिमा' शब्द की विद्यमानता सुनकर बच्चों के मान प्रसन्न होना और विजय का प्रयत्न करना ताकि साधारण अनपढ़ों को कह दें कि अब 'प्रतिमा' शब्द तो वेदों में से निकल आया; मूर्ति पूजा सिद्ध हो गई।)
#स्वामी_जी - सामवेद के ब्राह्मण में है (वा यजुर्वेद के ३२वें अध्याय के तीसरे मन्त्र में है) । उन लोगों ने फिर पूछा कि वह कौन-सा वचन है ? #स्वामी_जी - (देखिये स्पष्टहृदयता का चिह्न ! कि पक्षपात के बिना बतलाते हैं) 'देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति' अर्थात् देवता के स्थान कांपते हैं और प्रतिमा हंसती है, आदि। फिर उन लोगों ने कहा कि जब प्रतिमा शब्द वेद में है, तो आप कैसे खंडन करते हैं? स्वामी जी - 'प्रतिमा शब्द (आ जाने) से ही पाषाण पूजा आदि का प्रमाण नहीं बन जाता; इसके लिए तो प्रतिमा शब्द का अर्थ करना चाहिये। तब उन लोगों ने कहा कि जिस प्रकरण में यह मन्त्र है - उस प्रकरण का क्या अर्थ है ? #स्वामी_जी - इस का यह अर्थ है - 'अब अद्भुत शान्ति का व्याख्यान करते हैं, ऐसा आरम्भ करके फिर इन्द्र (त्रातारमिन्द्र) आदि सब मूलमन्त्र वहीं सामवेद के ब्राह्मण में लिखे हैं, और वहां कहा है कि इनमें से प्रत्येक मन्त्र पर तीन-तीन हजार आहुति करनी चाहिये । इसके पश्चात् व्याहृतियों से पांच-पांच आहुति देनी चाहिए।' ऐसा कहकर सामगान करना भी लिखा है । इस क्रम से अद्भुत शान्ति का विधान किया जाता है । जिस मन्त्र में प्रतिमा शब्द है, (वह) मन्त्र मृत्युलोकविषयक नहीं है, किन्तु ब्रह्मलोक विषयक है, जैसे—'स प्राचीं दिशमन्वावर्तते' अर्थात् 'जब वह विघ्नकर्ता देवता पूर्वदिशा में वर्तमान होवे' - इत्यादि मन्त्रों से पूर्वदिशा की अद्भुत दर्शनशान्ति होकर फिर दक्षिण दिशा की, पश्चिम दिशा की शान्ति कहकर, उत्तरदिशा की शान्ति कही। फिर भूमि और मृत्युलोक का प्रकरण समाप्त कर अन्तरिक्ष की शान्ति कही। और उसके पश्चात् स्वर्गलोक की और फिर परम स्वर्ग अर्थात् ब्रह्मलोक की ही शान्ति कही।
फिर #बालशास्त्री ने कहा कि जिस-जिस दिशा में जो देवता हैं, तिस-तिस देवता की शान्ति करने से दृष्टि-विघ्न की शान्ति होती है। #स्वामी_जी - यह तो सत्य है, परन्तु इस प्रकरण में दिखाने वाला कौन है? #बालशास्त्री - इन्द्रियां तो दिखाने वाली हैं। स्वामी जी - इन्द्रियां तो देखने वाली हैं, दिखाने वाली नहीं। परन्तु 'स प्राची दिशमन्वावर्तते' मन्त्रों में 'वह' शब्द का वाच्यार्थ क्या है ? बालशास्त्री से इस पर कुछ भी उत्तर न बन सका।
#पंडित_शिवसहाय (प्रयाग से) - शांति करने का फल अन्तरिक्ष आदि गमन, इस मन्त्र द्वारा कहा जाता है। स्वामी जी - यदि आपने वह प्रकरण देखा है, तो किसी मन्त्र का अर्थ कहिये। तब शिवसहाय जी चुप हो गये, कुछ न बोल सके।
फिर #विशुद्धानन्द_स्वामी ने कहा कि वेद कैसे उत्पन्न हुए? #स्वामी_जी - वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए। #विशुद्धानन्द - किस ईश्वर से? न्यायशास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से, योगशास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से अथवा वेदान्तशास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से? #स्वामी_जी - क्या ईश्वर बहुत से हैं ? #विशुद्धानन्द - ईश्वर तो एक ही है; परन्तु वेद कौन से लक्षण के ईश्वर से भये हैं? #स्वामी_जी - सच्चिदानन्द लक्षण वाले ईश्वर से होते हैं। #विशुद्धानन्द - ईश्वर और वेदों में क्या सम्बन्ध है? प्रतिपाद्यप्रतिपादक भाव या जन्यजनक भाव या समवायभाव वा स्वस्वामी भाव अथवा तादात्म्य आदि। #स्वामी_जी-कार्यकारण भाव सम्बन्ध है।
#विशुद्धानन्द - जैसे (मनो ब्रह्मेत्युपासीत) मन में ब्रह्मबुद्धि करके और (आदित्यं ब्रह्मेत्युपासीत) सूर्य में ब्रह्मबुद्धि करके प्रतीक उपासना कही है, तैसे ही शालिग्राम का पूजन भी ग्रहण करना चाहिये ।
#स्वामी_जी - जैसे 'मनो ब्रह्मेत्युपासीत', आदित्यं ब्रह्मेत्युपासीतेत्यादि वचन वेद में देखे जाते हैं, तैसे 'पाषाणादि ब्रह्मेत्युपासीत' आदि वचन वेद में नहीं दीख पड़ते; फिर क्योंकर मूर्तिपूजा का ग्रहण हो?
तब #माधवाचार्य ने कहा 'उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते इति' इस मन्त्र में पूर्त शब्द से किसका ग्रहण है? #स्वामी_जी - पूर्त शब्द पूर्ति का वाचक है। इस से किसी प्रकार और कभी भी पाषाण आदि की मूर्ति का ग्रहण नहीं होता; यदि शंका हो तो इस मन्त्र का निरुक्त और ब्राह्मण देखिये। (फिर इस पर कोई कुछ न बोला)।
#माधवाचार्य ने फिर एक नया प्रश्न पूछा कि पुराण शब्द वेदों में है या नहीं?
#स्वामी_जी - पुराण शब्द तो बहुत से स्थानों पर वेदों में है, परन्तु पुराण शब्द से ब्रह्मवैवर्त, भागवत, गरुड़ आदि ग्रन्थों का कदापि अर्थ नहीं लिया जा सकता क्योंकि वह शब्द भूतकाल का वाची है। और सभी स्थानों पर द्रव्य ही का विशेषण होता है। इस पर #विशुद्धानन्द जी बोले कि बृहदारण्यकोपनिषद् के इस मन्त्र में 'एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यद्दग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं श्लोका व्याख्यानान्यनुव्याख्यानानीति' जो यह सब पठित हैं, वे ग्रन्थ प्रामाणिक हैं या नहीं? #स्वामी_जी - केवल सत्य श्लोकों का ही प्रामाण्य होता है, और का नहीं।
#विशुद्धानन्द - यहां पुराण शब्द किस का विशेषण है? स्वामी जी - पुस्तक लाइये, तब विचार किया जा सकता है।
तब किसी ने बृहदारण्यक (ग्रन्थ तो) न निकाला; प्रत्युत इसके विपरीत एक और गृह्यसूत्र का ग्रन्थ लेकर उसके दो पत्रे निकाल कर #माधवाचार्य बोले - यहां पुराण शब्द किसका विशेषण है? #स्वामी_जी - कैसा वचन है? पढ़िये। माधवाचार्य ने तब कुछ पढ़ा उसमें लिखा था कि - 'ब्राह्मणानीतिहासपुराणानीति।' (तै॰ आ॰ २/९) #स्वामी_जी - यहां पुराण शब्द बाह्मण का विशेषण है, पुराने अर्थात् सनातन ब्राह्मण है। तब #बालशास्त्री ने कहा कि क्या कोई ब्राह्मण नवीन भी होते हैं? #स्वामी_जी - नवीन ब्राह्मण नहीं है, परन्तु ऐसी शंका किसी को न हो, इसलिए यहां यह विशेषण कहा है । #विशुद्धानन्द - यहां इतिहास शब्द का व्यवधान होने से कैसे विशेषण होगा? #स्वामी_जी - क्या ऐसा कोई नियम है कि व्यवधान हो तो विशेषण नहीं होता है और अव्यवधान में ही होता है। देखो गीता के इस श्लोक में- "अजो नित्य: शाश्वतोयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।" दूरस्थ देही का भी विशेषण क्या नहीं है? और व्याकरण आदि में भी कहीं यह नियम नहीं है कि समीपस्थ ही विशेषण होता है, दूरस्थ नहीं। #विशुद्धानन्द - यहां पुराण शब्द 'इतिहास' का विशेषण नहीं है, तो फिर इससे क्या अभिप्राय हुआ कि यहां नवीन इतिहास का ग्रहण करना चाहिए? #स्वामी_जी - अन्य किसी स्थान पर इतिहास का विशेषण पुराण शब्द है, सुनिये - 'इतिहासपुराण: पंचमो वेदानां वेद:" (छांदोग्योपनिषद ७/४) इत्यादि । इस वाक्य में इतिहास का विशेषण पुराण शब्द है। #वामनाचार्य आदि बहुत पंडितों ने कहा कि यह पाठ नहीं है। #स्वामी_जी - सामवेद के छान्दोग्योपनिषद् में यह पाठ न हो तो हमारा पराजय हो और जो ऐसा हो तो तुम्हारा पराजय हो, यह प्रतिज्ञा लिखो। तब सब चुप हो रहे, किसी ने प्रतिज्ञा लिखने का नाम न लिया।
फिर पूर्ण विद्वान् #स्वामी_दयानन्द_जी ने सत्यधर्म की पूरी विजय देखकर और बार बार प्रत्येक बनारसी विद्वान् को विद्याबल से (पृथक् पृथक) पछाड़ कर सर्वसामान्य (सभी पंडितों को) चुनौती दी। #स्वामी_जी - व्याकरण जानने वाले इस पर कहें कि व्याकरण में कहीं कल्मसंज्ञा की है या नहीं ? #बालशास्त्री - संज्ञा तो नहीं की है, परन्तु एक सूत्र में महाभाष्यकार ने उपहास किया है। #स्वामी_जी - महाभाष्य के किस सूत्र में संज्ञा तो नहीं की, प्रत्युत उपहास किया है? जो जानते हो तो उदाहरणपूर्वक समाधान कहो। इस पर #बालशास्त्री आदि कोई भी कुछ उत्तर न दे सका और सर्वथा गूंगे बन गये।
#कपट_का_आश्रय_लिया - उस समय चूंकि अच्छी प्रकार अन्धेरा हो गया था, चार घंटे तक शास्त्रार्थ करते करते सब थक गये थे, प्रत्येक अलग-अलग अपनी शक्ति की परीक्षा करके पराजित हो चुका था, इसलिए उन्होंने एक कपट का दाव खेला अर्थात माधवाचार्य ने दो पत्रे वेद के नाम से निकालकर सब पंडितों के बीच में फेंक दिये और कहा कि यज्ञ के समाप्त होने पर यजमान दसवें दिन पुराणों का पाठ सुने, ऐसा लिखा है। यहां पुराण शब्द किस का विशेषण है ? #स्वामी_जी ने कहां पढ़ो, इसमें किस प्रकार का पाठ है? जब किसी ने न पढ़ा तब #विशुद्धानन्द_स्वामी ने पत्रे उठाकर स्वामी जी को ओर करके कहा कि तुम ही पढ़ो। स्वामी जी-'आप ही इस का पाठ कीजिये।' कहकर पत्रे लौटा दिए। #विशुद्धानन्द - मैं बिना ऐनक के पाठ नहीं कर सकता - ऐसा कहकर वे पत्रे उन्होंने उठाकर स्वामी दयानन्द जी के हाथ में दे दिये। स्वामी जी पत्रे लेकर विचार करने लगे। अनुमानत: पांच पल बीते होंगे कि ज्यों ही स्वामी जी यह उत्तर दिया चाहते थे कि "पुरानी जो विद्या है, उसे पुराण विद्या कहते हैं, वह पुराण विद्या वेद है। पुराण विद्या से वेद इत्यादि ब्रह्मविद्या का यहां ग्रहण है (देखो माण्डूक्य का आरम्भ)। और अन्य स्थानों में ऋग्वेद आदि चार वेदों का यहां श्रवण लिखा है, उपनिषदों का नहीं, इसलिए "दशमेऽहनि किंचित्पुराणमाचक्षीत पुराणविद्या वेदः। गृह्यसूत्र के इस पाठ में यहां उपनिषदों का ही ग्रहण है, औरों का नहीं; क्योंकि एुरानी विद्या वेदों ही ब्रह्मविद्या है, इसलिए इससे भागवत, ब्रह्मवैवर्त आदि नवीन प्रन्थों का ग्रहण कभी नहीं कर सकते क्योंकि जो यहां ऐसा पाठ होता कि ब्रह्मवैवर्त आदि ग्रंथ पुराण हैं, सो वेद या उपनिषदों या किसी ऋषिकृत ग्रंथ में ऐसा पाठ कदापि नहीं है, इसलिए इस वचन से इन १८ ग्रन्थों का ग्रहण किसी भी प्रकार नहीं हो सकता।"
#विशुद्धानंद स्वामी उठ खड़े हुए कि हमको विलम्ब होता है, हम जाते हैं। तब सब के सब उठ खड़े हुए और कोलाहल करते हुए चले गए, ताकि उनके कोलाहल करने से लोगों को यह विदित हो कि स्वामी दयानन्द जी की पराजय हुई।
अब जिस पर बुद्धिमान लोग विचार करें कि किसकी जय और किसकी पराजय हुई। दयानन्द स्वामी के चार उपर्युक्त प्रश्न हैं, उस चारों का वेद में प्रमाण न निकला, तो क्योंकर उनकी पराजय हुई? प्रत्युत स्पष्ट प्रकट है कि काशी के पंडितों की पराजय हुई और स्वामी दयानन्दजी की जय।
(इसके आगे का प्रकरण स्वामी सत्यानंद कृत "श्रीमद्दयानंद प्रकाश" में इस प्रकार है - )
विशुद्धानन्द जी के संकेत से महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह जी भी उठ खड़े हुए और अपनी जय प्रख्यात करने के लिए करतालिका बजाने लगे, महाराजा के अनुकरण में सारे पण्डित तालियाँ पीटते और जय जय नाद करते हुए एकाएक उठ खड़े हुए। पचास-साठ सहस्र मनुष्यों के सभा-सागर में बड़ा भारी क्षोभ उत्पन्न हो गया, सर्वत्र गड़बड़ मच गई। उस समय अविवेकी मनुष्यों ने स्वामी जी महाराज पर ईंटें मारी, पत्थर और कङ्कर फेंके, गोबर और जूते उछाले, अन्य अनेकविध अवहेलना और अपमान किया, परन्तु महाराज के प्रशान्त चित्तदर्पण पर उदासीनता की यत्कश्चित् भी छाया न आई।
कोतवाल महाशय ने उद्दण्डजनों को वहाँ से खदेड़ दिया और महाराजा को कहा कि ताली पीटने का कार्य आपने अनुचित किया है। उन्होंने उत्तर दिया कि प्रतिमा पूजन करना हमारा तुम्हारा परस्पर का धर्म है। उसकी रक्षा के लिए शत्रु से जैसे भी जय लाभ हो करनी चाहिए।
पक्षपाती लोगों और अबोध जन-समुदाय ने अपनी बड़ी भारी जीत समझी। उन लोगों ने सारे नगर को जयकार से गूंजा दिया। परन्तु फिर भी ऐसे बीसियों विचारवान् मनुष्य वहाँ उपस्थित थे कि जिन्होंने पण्डितों की चाल को ताड़ लिया और स्वामी जी के साथ जो अनीति, अन्याय और धोखा किया गया था, उस पर घृणा प्रकट की।
पण्डित ईश्वर सिंह नाम के एक निर्मले सन्त काशी में वास करते थे। वे वेदान्त के निष्ठावान विद्वान् थे। उन्होंने उस दिन आनन्दोद्यान से लौटता हुआ जन-समुदाय देखा। उसमें विद्यार्थी, पण्डित और साधारण लोग स्वामी महाराज को अनेक कु-वचन बोलते हुए जा रहे थे। ईश्वर सिंह जी ने यहां यह भी सुना कि स्वामी जी पर लोगों ने आज ईंटें, पत्थर, गोबर और जूते फेंके हैं, उन्हें अगणित अपशब्द कहे हैं। उसके चित्त में उसी समय यह सङ्कल्प उत्पन्न हुआ कि चलो इसी समय चलकर दयानन्द की दशा देखें। यदि इस महा निरादर से, घोर अपमान से, विपरीत नीति से, निष्ठुर अन्याय से उनका चित्त विचलित न हुआ, तो समझेंगे कि वह सच्चा ब्रह्मज्ञानी और एक पहुँचा हुआ महात्मा है।
जिस समय ईश्वरसिंह जी आनन्दोद्यान में पहुंचे, तो महाराज चान्द की चाँदनी में टहल रहे थे। ईश्वरसिंह जी को आते देखकर भगवान् ने मुस्कराते हुए, बड़े आदर से उनका स्वागत किया। दोनों मिलकर बड़ी रात तक आत्मा और परमात्मा-सम्बन्धी विषयों पर बातचीत करते रहे। इतनी लम्बी बातचीत में ईश्वरसिंह जी को स्वामी जी के चन्द्रसमान चमकते हुए मुखमण्डल पर उदासीनता का एक भी धब्बा दिखाई न दिया। उनकी मुस्कराहट की चन्द्रछटा में उन्होंने किंचिन्मात्र भी न्यूनता न पाई। उनके हृदयगत साहस और उत्साह की ज्वालामाला-संकुल ज्वलन्त अग्नि से एक बार भी तो लम्बी सांस का धुंआ न निकला। ध्यानपूर्वक देखने पर भी उनके विमल चिदाकाश में निराशा बदली की एक भी टुकड़ी न दीख पड़ी। उन्होंने लोगों के अन्याय और अत्याचार की कुछ भी तो चर्चा न चलाई।
पण्डित ईश्वर सिंह जी ने महाप्रभु दयानन्द के चरण छूकर कहा- "महाराज आज तक मैं आपको वेद-शास्त्र का ज्ञाता, एक पण्डित मात्र समझता रहा हूँ। परन्तु आज पण्डितों के घृणित उत्पात से, अपमान से और विरोध की घोर आँधी से आपके हृदय सागर में राग-द्वेष की एक भी लहर उठते न देख, मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि आप वीतराग महात्मा और सिद्ध पुरुष हैं।" तत्पश्चात् सन्त ईश्वरसिंह जी, महाराज से विदा होकर अपने स्थान को चले गये।
काशी-शास्त्रार्थ विस्तार सहित पुस्तकाकार मुद्रित कराकर वितरण किया गया। समाचार-पत्रों में भी टीका-टिप्पणी सहित छपा। प्रसिद्ध पण्डित सत्यव्रत सामश्रमी भी शास्त्रार्थ के समय वहाँ विद्यमान थे। उन्होंने अपने मासिक-पत्र “प्रत्नकम्रनन्दिनी" के मार्गशीर्ष वा पौष सं० १९२६ के अंक में, काशी में स्वामी जी का विजय-समाचार प्रकाशित किया!
'रुहेलखण्ड समाचार-पत्र' ने अपने कार्तिक सं० १९२६ के अंक में लिखा - "स्वामी दयानन्द जी मूर्ति-पूजा के विरुद्ध हैं। उनका शास्त्रार्थ कानपुर के पण्डितों से भी हुआ था और अब उन्होंने काशी के पण्डितों को भी जीत लिया है।
"ज्ञान-प्रदायिनी पत्रिका" लाहौर से निकलती थी। उसके चैत्र संवत् १९२६ के अंक में काशी-शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में प्रकाशित किया गया कि - "इसमें सन्देह नहीं कि पण्डित लोग मूर्ति-पूजा की आज्ञा वेदों में नहीं दिखा सके।"
हिन्दू पेट्रियट" के पौष सुदी १५ सं० १९२६ के अंक में काशी-शास्त्रार्थ के विषय में यह प्रकाशित हुआ कि - कुछ काल हुआ रामनगर के महाराजा ने एक सभा बुलाई। इसमें काशी के बड़े-बड़े पण्डित आहूत किए गए। वहाँ स्वामी दयानन्द और पण्डितों के बीच एक लम्बा वाद होता रहा। पण्डित लोग यद्यपि अपने ज्ञान का अति गर्व करते थे, परन्तु हुई उनकी बड़ी भारी हार।"
(पुनः पंडित लेखराम कृत "महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र" में वर्णित है -)
#विचारणीय_टिप्पणी - विदित हो कि दयानन्द जी महाराज अकेले सत्य धर्म और सत्यविद्या के बल से छा के समस्त मूर्ति पूजा और शैव, शाक्त आदि सम्प्रदाय पंडितों के सम्मुख शास्त्रार्थ को उपस्थित थे। उचित तो यह था कि कोई एक पंडित जो सब में मुख्य होता, आरम्भ से अन्त तक बातचीत करता, परन्तु उस धार्मिक पुरुष ने इसकी कुछ चिन्ता न की और चार बातों में उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारा।
#पहला - "पाषाण आदि की मूर्ति का पूजन वेद विरुद्ध है; इसलिए उसका करना पाप है। सारा शास्त्रार्थ हो चुका, बनारस की सारी विद्या बल लगा चुकी और आज उसको २८ वर्ष होते हैं कि कोई मन्त्र किसी ने भी वेद से मूर्तिपूजन-विधान का न निकाला और निकालें किस प्रकार जब कि वेद में उसका पता ही नहीं है । दो-तीन बार जब प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पंडितों ने पछाड़ खाई, फिर सारा शास्त्रार्थ देखिए किसी ने मूर्ति की ओर मुख तक नहीं किया और न शालिग्राम आदि का कहीं नाम लिया। प्रिय पाठको ! यह कितनी बड़ी विजय है।
#दूसरा - मूर्तिपूजा के विषय में हार खाकर काशी के पंडित, मनुस्मृति आदि (ग्रन्थ) वेदमूलक हैं या नहीं, इस ओर दौड़े। अहंकार का शिर नीचा होता है। विशुद्धानन्द का यह कहना कि हां, हमको सब कंठ है, कितना अशुद्ध निकला और किस प्रकार उन्हें लज्जित होना पड़ा। यहां तक कि वह धर्म का और बालशास्त्री अधर्म का स्वरूप तक न बतला सके। सत्य है कि एकेश्वरवाद के सूर्य के सामने मूर्तिपूजा का मृत दीपक नहीं जल सकता। (धुंधला दीपक कैसे प्रकाशित होगा?)
#तीसरा - प्रतिमा शब्द पर पंडितों का चकित होना और उनकी व्यग्रता वास्तव में दया के योग्य है। जिस धार्मिक बल से सत्यप्रतिज्ञ महात्मा ने उनको अवसर दे-दे कर गिराया, वह अत्यन्त ही आश्चर्यजनक है।
#चौथा - "पुराण शब्द जो वेदादिक सनातन ग्रन्थों में आया है, उससे अठारह पुराण अभीष्ट नहीं। " पंडितों ने कितना प्रयत्न किया और कितने हाथ पांव मारे; अपनी ओर से (वे) जान पर भी खेल गये; सत्यासत्य का कुछ भी ध्यान न रखा, परन्तु ऋषि का ढंग न प्राप्त होना था, न हुआ। न अठारह पुराण सिद्ध हुए, न वे पुराण शब्द को विशेष्य वाची सिद्ध कर सके। छान्दोग्य के वाक्य पर समस्त पंडितों का एकमत होकर अस्वीकार करना कि यह कहीं नहीं है और स्वामी जी का इसपर पूर्ण सत्यता से डटे रहना और कहना कि यदि यह वाक्य सामवेद के छान्दोग्योपनिषद् में न हो तो हमारी पराजय अन्यथा तुम्हारी, यह प्रतिज्ञा लिखो। इस पर पंडितों का मौन साध जाना और प्रतिज्ञा से मुंह छुपाना, स्वामी जी की कित्मी बड़ी सफलता है ! माधवाचार्य का अन्धेरे में पत्रों का पटकना, सब पंडितों का पढ़ने से जी चुराना, विशुद्धानन्द का ऐनक का बहाना बनाकर जान छुड़ाना। स्वामी जी का ऐसे समय में पृष्ठ उठाकर पढ़ने में पांच पल लगाना और जब उत्तर देने लगना, तो प्रथम विशुद्धानन्द का विलम्ब का बहाना करके खड़ा हो जाना और साथ ही सारे पंडितों का कोलाहल करना और कोलाहल करते हुए बाहर निकल जाना, कैसी शिष्टता, कैसी बुद्धिमत्ता और सत्यासत्य के निर्णय का कितना ध्यान समझा जा सकता है।
✍️ *मिशन आर्यावर्त*🔥#काशी_शास्त्रार्थ_संपूर्ण_विवरण🔥(१६ नवम्बर, सन् १८६९)
#स्वामी_दयानंद_की_विजय_और_पंडितों_का_कपट - महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र, पंडित लेख राम, पृष्ठ ५६२-५६७
एक दयानन्द सरस्वती नामक संन्यासी, जो गंगा के तट पर विचरते होते हैं, सत्पुरुष और सत्य शास्त्रों के जानने वाले हैं। उन्होंने समस्त ऋग्वेद आदि का विचार किया है। वे सत्य शास्त्रों को देख और निश्चय करके ऐसा कहते है कि पत्थर आदि की मूर्ति का पूजन, शिव, शक्ति, गणपति और विष्णु आदि सम्प्रदाय बनाने का और रुद्राक्ष, तुलसीमाला, त्रिपुंड्र आदि धारण करने का वर्णन कहीं भी वेदों में नहीं है। इससे पता लगता है कि ये सब (बातें) मिथ्या ही है; ऐसी मर्यादा वेदों में लिखी है। इस कारण हरिद्वार से लेकर सब कहीं इसका खण्डन करते हुए, उक्त स्वामी जी काशी नगर में आयें और दुर्गाकुंड के समीप बाग में निवास किया। उनके आने की धूम मची। बहुत से पंडितों ने वेदों की पुस्तकों में विचार करना आरम्भ किया, परन्तु पाषाण आदि की, मूर्ति की पूजा का विधान कहीं भी नहीं मिला।
चूंकि पाषाण पूजा का लोगों को बहुत (आग्रह) है, इसलिए काशी महाराजा ने समस्त बड़े-बड़े पंडितों को बुलाकर (उन से) पूछा कि इस विषय में क्या करना चाहिये? तब सबने निश्चय करके यह कहा कि किसी न किसी प्रकार दयानन्द स्वामी से शास्त्रार्थ करके चिरकाल से प्रचलित प्रथा को जैसे भी सम्भव हो, स्थापित रखना चाहिये।
यह मन में ठान कार्तिक सुदि द्वादशी, संवत् १९२६, मंगलवार (१६ नवम्बर, सन् १८९६) को महाराज काशी नरेश बहुत से पण्डितों को साथ लेकर स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के अभिप्राय से गये । तब #दयानन्द_स्वामी ने महाराज से पूछा कि आप वेदों की पुस्तक ले आये या नहीं?' #महाराज ने कहा कि 'वेद समस्त पंडितों को कण्ठस्थ हैं; पुस्तक का क्या प्रयोजन है?' #दयानन्द_स्वामी ने कहा "पुस्तक के बिना पूर्वापर के विषय का विचार ठीक-ठीक न होगा। अस्तु, पुस्तक नहीं लाये तो, न सही !”
तत्पश्चात् पण्डित रघुनाथप्रसाद कोतवाल ने यह नियम निश्चित किया कि स्वामी जी से एक-एक पण्डित विचार करें।
शास्त्रार्थ में दो अंग्रेज पादरी भी उपस्थित थे। काशी के २७ प्रसिद्ध पण्डितों ने शास्त्रार्थ में योग दिया था। इन सभी २७ पंडितों को अकेले स्वामी दयानंद ने शास्त्रार्थ में आगे धूल चटा दी।
प्रथम #पंडित_ताराचरण_दार्शनिक, शास्त्रार्थ के लिए स्वामी जी के सामने आये। #स्वामी_जी ने उनसे पूछा कि वेद को प्रमाण मानते हो या नहीं?" #पंडित_ताराचरण - वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले सभी वेदों को प्रमाण मानते ही हैं। #स्वामी_जी - वेद में पाषाण आदि की पूजा का जहां प्रमाण हो, वह (स्थल) दिखलाइये । जो न हो, तो कहिये कि नहीं है। #पं०_ताराचरण - वेदों में ऐसा प्रामाणिक हो या न हो, यह तो अलग प्रश्न है; परन्तु जो व्यक्ति यह कहे कि केवल वेद ही प्रमाण है, इसको क्या कहा जाये?
(अर्थात् पंडित जी इस प्रश्न का उत्तर न दे पाए और विषय को परिवर्तित कर किया।)
#स्वामी_जी - औरों का विचार पीछे होगा, वेदों का विचार मुख्य है, इसलिए इस बात का पहले विचार करना चाहिये क्योंकि वेदोक्त कर्म ही मुख्य हैं, दूसरे ग्रंथों के बताए कर्म गौण हैं। वे वेदानुकूल होने ही से माने जा सकते हैं। इसलिए यदि वेद में प्रतिमा पूजन की आज्ञा नहीं है, तो उसका पूजन नहीं करना चाहिए और मनुस्मृति आदि भी वेदमूलक हैं; इस कारण ये भी प्रामाणिक हैं, परन्तु वेद के विरुद्ध और वेद-अप्रसिद्ध प्रामाणिक नहीं है।
#ताराचरण-मनुस्मृति का वेद में कहां मूल है? (पुनः विषय को वेद से हटाकर मनुस्मृति की ओर ले गए।) #स्वामी_जी - 'यद् वै किंचन मनुरवदत्तद्भेषजं भेषजताया:'--अर्थात् जो कुछ मनु ने कहा है, सो औषधियों की औषधि है, ऐसा सामवेद के छान्दोग्य ब्राह्मण में कहा है।
#विशुद्धानन्द_जी - 'रचनानुपपत्तेश्च नानुमानम्" अर्थात् रचना की अनुपपत्ति-असिद्धि होने से अनुमान-प्रतिपाद्य, प्रधान, जगत् का कारण नहीं, व्यास जी के इस सूत्र का वेदों में कहां मूल है? स्वामी जी - यह प्रकरण से पृथक् बात (अप्रासंगिक) इस पर विचार करना न चाहिए। विशुद्धानन्द - जो तुम जानते हो, तो अवश्य कहो । स्वामी जी ने देखा कि शास्त्रार्थ मूर्तिपूजा से हटकर दूसरी ओर चला जायेगा; इसलिए न कहा और कह दिया कि यदि कोई बात किसी को स्मरण न हो, तो पुस्तक देखकर कही जा सकती है। #विशुद्धानन्द - जो स्मरण नहीं था, तो काशी नगर में शास्त्रार्थ करने को क्यों तैयार हुए?
#स्वामी_जी - क्या आपको सब कण्ठस्थ हैं ? #विशुद्धानन्द - हम को सब कण्ठस्थ है। #स्वामी_जी - कहिये; धर्म का क्या स्वरूप है ? विशुद्धानन्द - वेदप्रतिपाद्य, सप्रयोजन अर्थ 'धर्म' कहलाता है। #स्वामी_जी - यह तो आप की संस्कृत (आपका अपना संस्कृत वाक्य) है । इस का भला क्या प्रमाण? श्रुति वा स्मृति (का जो प्रमाण कण्ठस्थ हो वह) कहिये #विशुद्धानन्द - 'चोदना लक्षणार्थो धर्म:"- अर्थात् चोदना लक्षण लिये जो अर्थ हो सो, धर्म कहलाता है; यह जैमिनि सूत्र है। #स्वामी_जी - चोदना का अर्थ प्रेरणा का है, जहां प्रेरणा होती है, वहां श्रुति अथवा स्मृति (का प्रमाण) कहना चाहिए। इस पर विशुद्धानन्द स्वामी ने कुछ भी नहीं कहा।
तब #स्वामी_जी ने कहा-'अच्छा जाने दीजिए। आप यह कहिये कि धर्म के कितने लक्षण हैं ? #विशुद्धानन्द - धर्म का एक ही लक्षण है। #स्वामी_जी - वह क्या है ? #विशुद्धानन्द_स्वामी - फिर मौन हो गये। #स्वामी_जी - धर्म के तो दश लक्षण हैं; आप एक कैसे कहते हैं? #विशुद्धानन्द - वे दश लक्षण कौन-कौन से हैं? #स्वामी_जी ने मनुस्मृति का श्लोक पढ़ा और कहा धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध - ये दश धर्म के लक्षण हैं।
तब #बालशास्त्री ने कहा - हमने सब धर्मशास्त्र देखा है। #स्वामी_जी - आप अधर्म का लक्षण कहिये । बालशास्त्री ने उसका कुछ उत्तर न दिया। फिर बहुत से पण्डितों ने हल्ला करके इकट्ठे (एक साथ मिलकर) पूछा कि वेदों में 'प्रतिमा' शब्द है या नहीं?
स्वामी जी - 'प्रतिमा' शब्द तो (वेद में) है।
उन लोगों ने पूछा कि कहां पर है?
(खेद है कि काशी के पंडित और वेदों के विषय में इतनी अज्ञानता ! और फिर 'प्रतिमा' शब्द की विद्यमानता सुनकर बच्चों के मान प्रसन्न होना और विजय का प्रयत्न करना ताकि साधारण अनपढ़ों को कह दें कि अब 'प्रतिमा' शब्द तो वेदों में से निकल आया; मूर्ति पूजा सिद्ध हो गई।)
#स्वामी_जी - सामवेद के ब्राह्मण में है (वा यजुर्वेद के ३२वें अध्याय के तीसरे मन्त्र में है) । उन लोगों ने फिर पूछा कि वह कौन-सा वचन है ? #स्वामी_जी - (देखिये स्पष्टहृदयता का चिह्न ! कि पक्षपात के बिना बतलाते हैं) 'देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति' अर्थात् देवता के स्थान कांपते हैं और प्रतिमा हंसती है, आदि। फिर उन लोगों ने कहा कि जब प्रतिमा शब्द वेद में है, तो आप कैसे खंडन करते हैं? स्वामी जी - 'प्रतिमा शब्द (आ जाने) से ही पाषाण पूजा आदि का प्रमाण नहीं बन जाता; इसके लिए तो प्रतिमा शब्द का अर्थ करना चाहिये। तब उन लोगों ने कहा कि जिस प्रकरण में यह मन्त्र है - उस प्रकरण का क्या अर्थ है ? #स्वामी_जी - इस का यह अर्थ है - 'अब अद्भुत शान्ति का व्याख्यान करते हैं, ऐसा आरम्भ करके फिर इन्द्र (त्रातारमिन्द्र) आदि सब मूलमन्त्र वहीं सामवेद के ब्राह्मण में लिखे हैं, और वहां कहा है कि इनमें से प्रत्येक मन्त्र पर तीन-तीन हजार आहुति करनी चाहिये । इसके पश्चात् व्याहृतियों से पांच-पांच आहुति देनी चाहिए।' ऐसा कहकर सामगान करना भी लिखा है । इस क्रम से अद्भुत शान्ति का विधान किया जाता है । जिस मन्त्र में प्रतिमा शब्द है, (वह) मन्त्र मृत्युलोकविषयक नहीं है, किन्तु ब्रह्मलोक विषयक है, जैसे—'स प्राचीं दिशमन्वावर्तते' अर्थात् 'जब वह विघ्नकर्ता देवता पूर्वदिशा में वर्तमान होवे' - इत्यादि मन्त्रों से पूर्वदिशा की अद्भुत दर्शनशान्ति होकर फिर दक्षिण दिशा की, पश्चिम दिशा की शान्ति कहकर, उत्तरदिशा की शान्ति कही। फिर भूमि और मृत्युलोक का प्रकरण समाप्त कर अन्तरिक्ष की शान्ति कही। और उसके पश्चात् स्वर्गलोक की और फिर परम स्वर्ग अर्थात् ब्रह्मलोक की ही शान्ति कही।
फिर #बालशास्त्री ने कहा कि जिस-जिस दिशा में जो देवता हैं, तिस-तिस देवता की शान्ति करने से दृष्टि-विघ्न की शान्ति होती है। #स्वामी_जी - यह तो सत्य है, परन्तु इस प्रकरण में दिखाने वाला कौन है? #बालशास्त्री - इन्द्रियां तो दिखाने वाली हैं। स्वामी जी - इन्द्रियां तो देखने वाली हैं, दिखाने वाली नहीं। परन्तु 'स प्राची दिशमन्वावर्तते' मन्त्रों में 'वह' शब्द का वाच्यार्थ क्या है ? बालशास्त्री से इस पर कुछ भी उत्तर न बन सका।
#पंडित_शिवसहाय (प्रयाग से) - शांति करने का फल अन्तरिक्ष आदि गमन, इस मन्त्र द्वारा कहा जाता है। स्वामी जी - यदि आपने वह प्रकरण देखा है, तो किसी मन्त्र का अर्थ कहिये। तब शिवसहाय जी चुप हो गये, कुछ न बोल सके।
फिर #विशुद्धानन्द_स्वामी ने कहा कि वेद कैसे उत्पन्न हुए? #स्वामी_जी - वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए। #विशुद्धानन्द - किस ईश्वर से? न्यायशास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से, योगशास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से अथवा वेदान्तशास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से? #स्वामी_जी - क्या ईश्वर बहुत से हैं ? #विशुद्धानन्द - ईश्वर तो एक ही है; परन्तु वेद कौन से लक्षण के ईश्वर से भये हैं? #स्वामी_जी - सच्चिदानन्द लक्षण वाले ईश्वर से होते हैं। #विशुद्धानन्द - ईश्वर और वेदों में क्या सम्बन्ध है? प्रतिपाद्यप्रतिपादक भाव या जन्यजनक भाव या समवायभाव वा स्वस्वामी भाव अथवा तादात्म्य आदि। #स्वामी_जी-कार्यकारण भाव सम्बन्ध है।
#विशुद्धानन्द - जैसे (मनो ब्रह्मेत्युपासीत) मन में ब्रह्मबुद्धि करके और (आदित्यं ब्रह्मेत्युपासीत) सूर्य में ब्रह्मबुद्धि करके प्रतीक उपासना कही है, तैसे ही शालिग्राम का पूजन भी ग्रहण करना चाहिये ।
#स्वामी_जी - जैसे 'मनो ब्रह्मेत्युपासीत', आदित्यं ब्रह्मेत्युपासीतेत्यादि वचन वेद में देखे जाते हैं, तैसे 'पाषाणादि ब्रह्मेत्युपासीत' आदि वचन वेद में नहीं दीख पड़ते; फिर क्योंकर मूर्तिपूजा का ग्रहण हो?
तब #माधवाचार्य ने कहा 'उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते इति' इस मन्त्र में पूर्त शब्द से किसका ग्रहण है? #स्वामी_जी - पूर्त शब्द पूर्ति का वाचक है। इस से किसी प्रकार और कभी भी पाषाण आदि की मूर्ति का ग्रहण नहीं होता; यदि शंका हो तो इस मन्त्र का निरुक्त और ब्राह्मण देखिये। (फिर इस पर कोई कुछ न बोला)।
#माधवाचार्य ने फिर एक नया प्रश्न पूछा कि पुराण शब्द वेदों में है या नहीं?
#स्वामी_जी - पुराण शब्द तो बहुत से स्थानों पर वेदों में है, परन्तु पुराण शब्द से ब्रह्मवैवर्त, भागवत, गरुड़ आदि ग्रन्थों का कदापि अर्थ नहीं लिया जा सकता क्योंकि वह शब्द भूतकाल का वाची है। और सभी स्थानों पर द्रव्य ही का विशेषण होता है। इस पर #विशुद्धानन्द जी बोले कि बृहदारण्यकोपनिषद् के इस मन्त्र में 'एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यद्दग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं श्लोका व्याख्यानान्यनुव्याख्यानानीति' जो यह सब पठित हैं, वे ग्रन्थ प्रामाणिक हैं या नहीं? #स्वामी_जी - केवल सत्य श्लोकों का ही प्रामाण्य होता है, और का नहीं।
#विशुद्धानन्द - यहां पुराण शब्द किस का विशेषण है? स्वामी जी - पुस्तक लाइये, तब विचार किया जा सकता है।
तब किसी ने बृहदारण्यक (ग्रन्थ तो) न निकाला; प्रत्युत इसके विपरीत एक और गृह्यसूत्र का ग्रन्थ लेकर उसके दो पत्रे निकाल कर #माधवाचार्य बोले - यहां पुराण शब्द किसका विशेषण है? #स्वामी_जी - कैसा वचन है? पढ़िये। माधवाचार्य ने तब कुछ पढ़ा उसमें लिखा था कि - 'ब्राह्मणानीतिहासपुराणानीति।' (तै॰ आ॰ २/९) #स्वामी_जी - यहां पुराण शब्द बाह्मण का विशेषण है, पुराने अर्थात् सनातन ब्राह्मण है। तब #बालशास्त्री ने कहा कि क्या कोई ब्राह्मण नवीन भी होते हैं? #स्वामी_जी - नवीन ब्राह्मण नहीं है, परन्तु ऐसी शंका किसी को न हो, इसलिए यहां यह विशेषण कहा है । #विशुद्धानन्द - यहां इतिहास शब्द का व्यवधान होने से कैसे विशेषण होगा? #स्वामी_जी - क्या ऐसा कोई नियम है कि व्यवधान हो तो विशेषण नहीं होता है और अव्यवधान में ही होता है। देखो गीता के इस श्लोक में- "अजो नित्य: शाश्वतोयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।" दूरस्थ देही का भी विशेषण क्या नहीं है? और व्याकरण आदि में भी कहीं यह नियम नहीं है कि समीपस्थ ही विशेषण होता है, दूरस्थ नहीं। #विशुद्धानन्द - यहां पुराण शब्द 'इतिहास' का विशेषण नहीं है, तो फिर इससे क्या अभिप्राय हुआ कि यहां नवीन इतिहास का ग्रहण करना चाहिए? #स्वामी_जी - अन्य किसी स्थान पर इतिहास का विशेषण पुराण शब्द है, सुनिये - 'इतिहासपुराण: पंचमो वेदानां वेद:" (छांदोग्योपनिषद ७/४) इत्यादि । इस वाक्य में इतिहास का विशेषण पुराण शब्द है। #वामनाचार्य आदि बहुत पंडितों ने कहा कि यह पाठ नहीं है। #स्वामी_जी - सामवेद के छान्दोग्योपनिषद् में यह पाठ न हो तो हमारा पराजय हो और जो ऐसा हो तो तुम्हारा पराजय हो, यह प्रतिज्ञा लिखो। तब सब चुप हो रहे, किसी ने प्रतिज्ञा लिखने का नाम न लिया।
फिर पूर्ण विद्वान् #स्वामी_दयानन्द_जी ने सत्यधर्म की पूरी विजय देखकर और बार बार प्रत्येक बनारसी विद्वान् को विद्याबल से (पृथक् पृथक) पछाड़ कर सर्वसामान्य (सभी पंडितों को) चुनौती दी। #स्वामी_जी - व्याकरण जानने वाले इस पर कहें कि व्याकरण में कहीं कल्मसंज्ञा की है या नहीं ? #बालशास्त्री - संज्ञा तो नहीं की है, परन्तु एक सूत्र में महाभाष्यकार ने उपहास किया है। #स्वामी_जी - महाभाष्य के किस सूत्र में संज्ञा तो नहीं की, प्रत्युत उपहास किया है? जो जानते हो तो उदाहरणपूर्वक समाधान कहो। इस पर #बालशास्त्री आदि कोई भी कुछ उत्तर न दे सका और सर्वथा गूंगे बन गये।
#कपट_का_आश्रय_लिया - उस समय चूंकि अच्छी प्रकार अन्धेरा हो गया था, चार घंटे तक शास्त्रार्थ करते करते सब थक गये थे, प्रत्येक अलग-अलग अपनी शक्ति की परीक्षा करके पराजित हो चुका था, इसलिए उन्होंने एक कपट का दाव खेला अर्थात माधवाचार्य ने दो पत्रे वेद के नाम से निकालकर सब पंडितों के बीच में फेंक दिये और कहा कि यज्ञ के समाप्त होने पर यजमान दसवें दिन पुराणों का पाठ सुने, ऐसा लिखा है। यहां पुराण शब्द किस का विशेषण है ? #स्वामी_जी ने कहां पढ़ो, इसमें किस प्रकार का पाठ है? जब किसी ने न पढ़ा तब #विशुद्धानन्द_स्वामी ने पत्रे उठाकर स्वामी जी को ओर करके कहा कि तुम ही पढ़ो। स्वामी जी-'आप ही इस का पाठ कीजिये।' कहकर पत्रे लौटा दिए। #विशुद्धानन्द - मैं बिना ऐनक के पाठ नहीं कर सकता - ऐसा कहकर वे पत्रे उन्होंने उठाकर स्वामी दयानन्द जी के हाथ में दे दिये। स्वामी जी पत्रे लेकर विचार करने लगे। अनुमानत: पांच पल बीते होंगे कि ज्यों ही स्वामी जी यह उत्तर दिया चाहते थे कि "पुरानी जो विद्या है, उसे पुराण विद्या कहते हैं, वह पुराण विद्या वेद है। पुराण विद्या से वेद इत्यादि ब्रह्मविद्या का यहां ग्रहण है (देखो माण्डूक्य का आरम्भ)। और अन्य स्थानों में ऋग्वेद आदि चार वेदों का यहां श्रवण लिखा है, उपनिषदों का नहीं, इसलिए "दशमेऽहनि किंचित्पुराणमाचक्षीत पुराणविद्या वेदः। गृह्यसूत्र के इस पाठ में यहां उपनिषदों का ही ग्रहण है, औरों का नहीं; क्योंकि एुरानी विद्या वेदों ही ब्रह्मविद्या है, इसलिए इससे भागवत, ब्रह्मवैवर्त आदि नवीन प्रन्थों का ग्रहण कभी नहीं कर सकते क्योंकि जो यहां ऐसा पाठ होता कि ब्रह्मवैवर्त आदि ग्रंथ पुराण हैं, सो वेद या उपनिषदों या किसी ऋषिकृत ग्रंथ में ऐसा पाठ कदापि नहीं है, इसलिए इस वचन से इन १८ ग्रन्थों का ग्रहण किसी भी प्रकार नहीं हो सकता।"
#विशुद्धानंद स्वामी उठ खड़े हुए कि हमको विलम्ब होता है, हम जाते हैं। तब सब के सब उठ खड़े हुए और कोलाहल करते हुए चले गए, ताकि उनके कोलाहल करने से लोगों को यह विदित हो कि स्वामी दयानन्द जी की पराजय हुई।
अब जिस पर बुद्धिमान लोग विचार करें कि किसकी जय और किसकी पराजय हुई। दयानन्द स्वामी के चार उपर्युक्त प्रश्न हैं, उस चारों का वेद में प्रमाण न निकला, तो क्योंकर उनकी पराजय हुई? प्रत्युत स्पष्ट प्रकट है कि काशी के पंडितों की पराजय हुई और स्वामी दयानन्दजी की जय।
(इसके आगे का प्रकरण स्वामी सत्यानंद कृत "श्रीमद्दयानंद प्रकाश" में इस प्रकार है - )
विशुद्धानन्द जी के संकेत से महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह जी भी उठ खड़े हुए और अपनी जय प्रख्यात करने के लिए करतालिका बजाने लगे, महाराजा के अनुकरण में सारे पण्डित तालियाँ पीटते और जय जय नाद करते हुए एकाएक उठ खड़े हुए। पचास-साठ सहस्र मनुष्यों के सभा-सागर में बड़ा भारी क्षोभ उत्पन्न हो गया, सर्वत्र गड़बड़ मच गई। उस समय अविवेकी मनुष्यों ने स्वामी जी महाराज पर ईंटें मारी, पत्थर और कङ्कर फेंके, गोबर और जूते उछाले, अन्य अनेकविध अवहेलना और अपमान किया, परन्तु महाराज के प्रशान्त चित्तदर्पण पर उदासीनता की यत्कश्चित् भी छाया न आई।
कोतवाल महाशय ने उद्दण्डजनों को वहाँ से खदेड़ दिया और महाराजा को कहा कि ताली पीटने का कार्य आपने अनुचित किया है। उन्होंने उत्तर दिया कि प्रतिमा पूजन करना हमारा तुम्हारा परस्पर का धर्म है। उसकी रक्षा के लिए शत्रु से जैसे भी जय लाभ हो करनी चाहिए।
पक्षपाती लोगों और अबोध जन-समुदाय ने अपनी बड़ी भारी जीत समझी। उन लोगों ने सारे नगर को जयकार से गूंजा दिया। परन्तु फिर भी ऐसे बीसियों विचारवान् मनुष्य वहाँ उपस्थित थे कि जिन्होंने पण्डितों की चाल को ताड़ लिया और स्वामी जी के साथ जो अनीति, अन्याय और धोखा किया गया था, उस पर घृणा प्रकट की।
पण्डित ईश्वर सिंह नाम के एक निर्मले सन्त काशी में वास करते थे। वे वेदान्त के निष्ठावान विद्वान् थे। उन्होंने उस दिन आनन्दोद्यान से लौटता हुआ जन-समुदाय देखा। उसमें विद्यार्थी, पण्डित और साधारण लोग स्वामी महाराज को अनेक कु-वचन बोलते हुए जा रहे थे। ईश्वर सिंह जी ने यहां यह भी सुना कि स्वामी जी पर लोगों ने आज ईंटें, पत्थर, गोबर और जूते फेंके हैं, उन्हें अगणित अपशब्द कहे हैं। उसके चित्त में उसी समय यह सङ्कल्प उत्पन्न हुआ कि चलो इसी समय चलकर दयानन्द की दशा देखें। यदि इस महा निरादर से, घोर अपमान से, विपरीत नीति से, निष्ठुर अन्याय से उनका चित्त विचलित न हुआ, तो समझेंगे कि वह सच्चा ब्रह्मज्ञानी और एक पहुँचा हुआ महात्मा है।
जिस समय ईश्वरसिंह जी आनन्दोद्यान में पहुंचे, तो महाराज चान्द की चाँदनी में टहल रहे थे। ईश्वरसिंह जी को आते देखकर भगवान् ने मुस्कराते हुए, बड़े आदर से उनका स्वागत किया। दोनों मिलकर बड़ी रात तक आत्मा और परमात्मा-सम्बन्धी विषयों पर बातचीत करते रहे। इतनी लम्बी बातचीत में ईश्वरसिंह जी को स्वामी जी के चन्द्रसमान चमकते हुए मुखमण्डल पर उदासीनता का एक भी धब्बा दिखाई न दिया। उनकी मुस्कराहट की चन्द्रछटा में उन्होंने किंचिन्मात्र भी न्यूनता न पाई। उनके हृदयगत साहस और उत्साह की ज्वालामाला-संकुल ज्वलन्त अग्नि से एक बार भी तो लम्बी सांस का धुंआ न निकला। ध्यानपूर्वक देखने पर भी उनके विमल चिदाकाश में निराशा बदली की एक भी टुकड़ी न दीख पड़ी। उन्होंने लोगों के अन्याय और अत्याचार की कुछ भी तो चर्चा न चलाई।
पण्डित ईश्वर सिंह जी ने महाप्रभु दयानन्द के चरण छूकर कहा- "महाराज आज तक मैं आपको वेद-शास्त्र का ज्ञाता, एक पण्डित मात्र समझता रहा हूँ। परन्तु आज पण्डितों के घृणित उत्पात से, अपमान से और विरोध की घोर आँधी से आपके हृदय सागर में राग-द्वेष की एक भी लहर उठते न देख, मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि आप वीतराग महात्मा और सिद्ध पुरुष हैं।" तत्पश्चात् सन्त ईश्वरसिंह जी, महाराज से विदा होकर अपने स्थान को चले गये।
काशी-शास्त्रार्थ विस्तार सहित पुस्तकाकार मुद्रित कराकर वितरण किया गया। समाचार-पत्रों में भी टीका-टिप्पणी सहित छपा। प्रसिद्ध पण्डित सत्यव्रत सामश्रमी भी शास्त्रार्थ के समय वहाँ विद्यमान थे। उन्होंने अपने मासिक-पत्र “प्रत्नकम्रनन्दिनी" के मार्गशीर्ष वा पौष सं० १९२६ के अंक में, काशी में स्वामी जी का विजय-समाचार प्रकाशित किया!
'रुहेलखण्ड समाचार-पत्र' ने अपने कार्तिक सं० १९२६ के अंक में लिखा - "स्वामी दयानन्द जी मूर्ति-पूजा के विरुद्ध हैं। उनका शास्त्रार्थ कानपुर के पण्डितों से भी हुआ था और अब उन्होंने काशी के पण्डितों को भी जीत लिया है।
"ज्ञान-प्रदायिनी पत्रिका" लाहौर से निकलती थी। उसके चैत्र संवत् १९२६ के अंक में काशी-शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में प्रकाशित किया गया कि - "इसमें सन्देह नहीं कि पण्डित लोग मूर्ति-पूजा की आज्ञा वेदों में नहीं दिखा सके।"
हिन्दू पेट्रियट" के पौष सुदी १५ सं० १९२६ के अंक में काशी-शास्त्रार्थ के विषय में यह प्रकाशित हुआ कि - कुछ काल हुआ रामनगर के महाराजा ने एक सभा बुलाई। इसमें काशी के बड़े-बड़े पण्डित आहूत किए गए। वहाँ स्वामी दयानन्द और पण्डितों के बीच एक लम्बा वाद होता रहा। पण्डित लोग यद्यपि अपने ज्ञान का अति गर्व करते थे, परन्तु हुई उनकी बड़ी भारी हार।"
(पुनः पंडित लेखराम कृत "महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र" में वर्णित है -)
#विचारणीय_टिप्पणी - विदित हो कि दयानन्द जी महाराज अकेले सत्य धर्म और सत्यविद्या के बल से छा के समस्त मूर्ति पूजा और शैव, शाक्त आदि सम्प्रदाय पंडितों के सम्मुख शास्त्रार्थ को उपस्थित थे। उचित तो यह था कि कोई एक पंडित जो सब में मुख्य होता, आरम्भ से अन्त तक बातचीत करता, परन्तु उस धार्मिक पुरुष ने इसकी कुछ चिन्ता न की और चार बातों में उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारा।
#पहला - "पाषाण आदि की मूर्ति का पूजन वेद विरुद्ध है; इसलिए उसका करना पाप है। सारा शास्त्रार्थ हो चुका, बनारस की सारी विद्या बल लगा चुकी और आज उसको २८ वर्ष होते हैं कि कोई मन्त्र किसी ने भी वेद से मूर्तिपूजन-विधान का न निकाला और निकालें किस प्रकार जब कि वेद में उसका पता ही नहीं है । दो-तीन बार जब प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पंडितों ने पछाड़ खाई, फिर सारा शास्त्रार्थ देखिए किसी ने मूर्ति की ओर मुख तक नहीं किया और न शालिग्राम आदि का कहीं नाम लिया। प्रिय पाठको ! यह कितनी बड़ी विजय है।
#दूसरा - मूर्तिपूजा के विषय में हार खाकर काशी के पंडित, मनुस्मृति आदि (ग्रन्थ) वेदमूलक हैं या नहीं, इस ओर दौड़े। अहंकार का शिर नीचा होता है। विशुद्धानन्द का यह कहना कि हां, हमको सब कंठ है, कितना अशुद्ध निकला और किस प्रकार उन्हें लज्जित होना पड़ा। यहां तक कि वह धर्म का और बालशास्त्री अधर्म का स्वरूप तक न बतला सके। सत्य है कि एकेश्वरवाद के सूर्य के सामने मूर्तिपूजा का मृत दीपक नहीं जल सकता। (धुंधला दीपक कैसे प्रकाशित होगा?)
#तीसरा - प्रतिमा शब्द पर पंडितों का चकित होना और उनकी व्यग्रता वास्तव में दया के योग्य है। जिस धार्मिक बल से सत्यप्रतिज्ञ महात्मा ने उनको अवसर दे-दे कर गिराया, वह अत्यन्त ही आश्चर्यजनक है।
#चौथा - "पुराण शब्द जो वेदादिक सनातन ग्रन्थों में आया है, उससे अठारह पुराण अभीष्ट नहीं। " पंडितों ने कितना प्रयत्न किया और कितने हाथ पांव मारे; अपनी ओर से (वे) जान पर भी खेल गये; सत्यासत्य का कुछ भी ध्यान न रखा, परन्तु ऋषि का ढंग न प्राप्त होना था, न हुआ। न अठारह पुराण सिद्ध हुए, न वे पुराण शब्द को विशेष्य वाची सिद्ध कर सके। छान्दोग्य के वाक्य पर समस्त पंडितों का एकमत होकर अस्वीकार करना कि यह कहीं नहीं है और स्वामी जी का इसपर पूर्ण सत्यता से डटे रहना और कहना कि यदि यह वाक्य सामवेद के छान्दोग्योपनिषद् में न हो तो हमारी पराजय अन्यथा तुम्हारी, यह प्रतिज्ञा लिखो। इस पर पंडितों का मौन साध जाना और प्रतिज्ञा से मुंह छुपाना, स्वामी जी की कित्मी बड़ी सफलता है ! माधवाचार्य का अन्धेरे में पत्रों का पटकना, सब पंडितों का पढ़ने से जी चुराना, विशुद्धानन्द का ऐनक का बहाना बनाकर जान छुड़ाना। स्वामी जी का ऐसे समय में पृष्ठ उठाकर पढ़ने में पांच पल लगाना और जब उत्तर देने लगना, तो प्रथम विशुद्धानन्द का विलम्ब का बहाना करके खड़ा हो जाना और साथ ही सारे पंडितों का कोलाहल करना और कोलाहल करते हुए बाहर निकल जाना, कैसी शिष्टता, कैसी बुद्धिमत्ता और सत्यासत्य के निर्णय का कितना ध्यान समझा जा सकता है।
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