विषय -शिव लिंग क्या है और उसकी वास्तविकता।

 विषय - शिव लिंग क्या है और उसकी वास्तविकता।




नमस्ते सभी सनातनधर्मप्रेमियों को!🙏

आज हम शिव लिंग के वास्तविकता पर इस लेख मे विचार करेंगे। 

 मित्रो! कृपया इस लेख को पढ़ते वक्त निष्पक्ष होकर विचार करियेगा तथा पूर्व ही अवगत कराना चाहेंगे - हमारा कोई भी सामाजिक वैमनस्यता फैलाने का विचार नहीं है और ना ही किसीके भावनाओं को ठेस पहुँचाना आशय है। प्रत्युत हमारा उद्देश्य केवल सत्य को जानने जनाने मे प्रयास है। वह सत्य ही क्या जिसे कहने वा सुनने से भावनाये आहत हो जाये, अतः हम सबके लिए हितकर ही लेख लिख रहे है ताकि यह सत्यास्त्र हमारे अंदर के अज्ञानपाश का छेदन कर सके।


पाठकगणो! आजकल कुछ हमारे पौराणिक भाई शिव लिंग का अर्थ करते हुए कहते है की देखिये संस्कृत मे "लिंग" का एक अर्थ चिन्ह भी है और इसी अर्थ मे समस्त पुराणों मे प्रयोग किया गया है।

तो इसपर प्रश्न खड़ा होता है की बताइये शिव जी तो स्वयं साकार स्वरुप है उनका विग्रह है फिर कहिये शिव लिंग (चिन्ह ) किस रूप को दर्शाता है ? 

हमें तो उसमे कोई अंग-प्रत्यङ्ग देखने को नहीं मिला, इसपर आप ये भी कहेँगे की शिव जी का स्वरुप निराकर भी तो है। जब स्वरुप निराकार ही है तथा जब उसका प्रतिक बन ही नहीं सकता तो फिर आप किस चीज की पूजन कर रहे है और किसे बनाने की प्रयास मे लगे हुए है?? 


जब हम शिव पुराण मे देखते है की शिव जी मोहिनी नामक अवतार पर मोहित हो गए , शिव जी दारुवान मे नंग-धड़ग घूमते और व्यभिचार करते है और देवी अनुसूया के साथ व्यभिचार करने का प्रयत्न करते है तो पौराणिक लोग उसे भी 'लीला' कह देते है 


अब इन श्लोको को देखे-


व्यभिचाररता भार्याः सन्त्याज्या : पतिनेरिताः.....॥ २९ ॥


 दृष्टवा व्यभिचरन्तीह ह्यस्माभिः पुरुषाधम..... ॥ ३१ ॥


 ताडयाञ्चक्रिरे दण्डैर्लोष्ठिभिर्मुष्टिभिर्द्विजाः..... ॥ ३८ ॥


 दृष्ट्वाचरन्त गिरिशं नग्नं विकृतिलक्षणम् ।

 प्रोचुरेतद्भवलिङ्गमुत्पाटय सुदुर्मते ॥ ३९ ॥


 अस्माभिर्विविधाः शापा : प्रवृत्तास्ते पराहताः ।

 ताडितोऽस्माभिरत्यर्थ लिङ्ग विनिपातितम् ॥ ५४ ॥

 - कूर्मपुराण उत्तरार्ध अ० ३८


 अर्थात् ऋषियों ने कहा - हमने अपनी पतिव्रता पत्नियों को पुरुषाधम ( महानीच ) शिवजी के साथ व्यभिचार करते हुए देखा । हमने उस शिव को डण्डे , लोहे व लात घूसों से खूब पीटा । हमने शिव को नङ्गा विकृत आकृति वाला देखकर उसे शाप दिया कि हे दुर्मति ( मूर्ख ) तेरी यह लिङ्गेन्द्रिय कटकर गिर पड़े । हमारे उन अनेक शापों से रतिकार्य के लिए जो लिङ्गेन्द्रिय होती है , वह कटकर गिर पड़ी ।


तथा


दिगम्बरोऽतितेजस्वी भूतिभूपणविभूषितः । 

सचेष्टां सदक्षां च हस्ते लिङ्गं विधारयन् ॥ १० ॥ 

- शिवपुराण कोटि . रुद्रसं० अ० १६

 (सामाजिक मर्यादा हिंदी हेतु अर्थ देने मे असक्षम है)*


पुराणों मे शिव जी एक जगह लिखा है सबका कल्याण करने वाले है,

ऐसे करेंगे कल्याण??


शिव जी ही पाप क्षमा करते और पापी लोग यही समझकर उनकी पूजन करते है,क्या वेद विरोधी पौराणिक शिव कभी धर्मरक्षक हो सकता है?


एक और विशेषण देते है त्रिलोकेश- तीनों लोकों के स्वामी ऐसे व्यभिचारि होते है क्या स्वामि?


कामारी - कामदेव के शत्रु

कैसे ? काम के वश होकर व्यभिचार करने से ?? 👆👆

गांजा आदि मादक पदार्थो के सेवन से योगी?? 


इसलिए हमारे ऊपर सारे विधर्मी प्रश्न करते है और हम ही स्वयं महापुरुषों की उपहास उडाने मे लगे रहते है, जो यह कपोलकल्पित पुराण ना होते तो महापुरुषों की झूठी निंदा क्यूकर होती दिख पडती?


बॉलीवुड भी आराम से हमारे महापुरुषों पर प्रहार कर रहे गाना बनाकर और यह मुर्ख हिंदू नाच गा रहा है कितने शर्म की बात है और सच्चा इतिहास प्रचारित करें तो आर्य समाज को ही पौराणिक पोप गालिया देते है।


जो मुर्ख ये तक कहते है की -"ये सब शिव की लीला है" फिर वे यह भी बताये की यदि यही सब आपके घरके नारियो संग शिव करते तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होती?क्यों अब लीला नहीं कहेँगे?

यदि आपको मेरे इस प्रश्न से तत्काल क्रोध आ गया हो तो अवश्य ही ये कृत्य अधर्म है सिद्ध हुआ फिर शिव जी पर ऐसे मिथ्या आरोप क्यों मान लेते है? और यदि मानते भी है तब वे पूजा के पात्र कैसे हुए? मात्र निंदा के पात्र होने चाहिए थे।इस दृष्टि से हमें ये साफ पता चलता है की ये सब मुर्ख लोगो के रचे झूठे ग्रन्थ है।


हम तो और भी श्लोक प्रस्तुत करते किन्तु लेख को व्यर्थ विस्तार नहीं देना चाहेंगे जिनकी इच्छा हो वे पुराणों से स्वयं पढ़े। यदि बहुमात्रा मे ऐसे वेद विरुद्ध चीजे ही पुराणों मे पढ़ने मिल रही है तो स्थानीपुलात्यन्याय से यही मानना उचित है की यही पुराण मे भरा पड़ा है।

फिर भी कुछ कहे की पुराणों मे मिलावट हुई है तो उसमे ये गलत इतिहास को निकालिये और सबसे महत्व की बात जिसपर ये सारे पुराण आश्रित है उस संप्रदायवाद-अनेकेश्वरवाद-अवतारवाद को निकालिये फिर उसे वेदानुकूल और आर्ष सम्मत कर पठनीय रूप प्रदान कीजिये। पुराण मे कुछ सत्य अवश्य है किन्तु उसे खोजने हेतु सारे आर्ष ग्रन्थ मे विद्वत्ता और निष्पक्ष होना अनिवार्य है तबतक आप इस वियुक्त पुराण को ना पढ़े तो ही भला।  और जो सत्य है वो वो वेदादि ग्रंथो से लिया गया है वह सब आपको आर्ष ग्रंथो मे भलीभाति प्राप्त हो ही जायेंगे फिर भी पढ़ना चाहे तो पढ़ सकते है।


एक बात यहाँ जानना चाहिए - पुराण तो महर्षि वेदव्यास कृत है ही नहीं ,कोई ऋषि ऐसे झूठी बाते न लिखेगा, ये तो स्वार्थी सम्प्रदायीक लोगो ने रचे है। और क्या ऐसे कुकृत्य करने वाले कभी भगवान हो सकते है ? बिलकुल नहीं। तथा ब्राह्मण ग्रंथो का नाम ही प्राचीन काल से "पुराण" है।जिसका प्रमाण आश्वालायन सूत्र इत्यादि मे है।


अब हम शिव पुराण से ही दिखाते है की शिव लिंग कहते किसको है-


गिरिजां योनिरूपां च वाणं स्थाप्य शुभं पुनः ।

 तत्र लिङ्ग च तत्स्थाप्यं पुनश्चैवाभिमन्त्रयेत् ॥ ३७ ॥

- शिव पु० कोटि रुद्र संहिता अ० १२ श्लोक संख्या 37


इसका अर्थ इतना अश्लील होने से नहीं लिख रहे।

इस एक श्लोक से सिद्ध हो गया की मंदिरो मे शिव का जननैइन्द्रिय ही पूजा जा रहा है ,और जलहरी और कुछ नहीं पार्वती जी का योनि रूप ही है। इसकी पूजन मे आपके मस्तिष्क मे कोई अर्थ प्रकट हुआ? आएगा भी क्यों? ये अखंड मूर्खता ही है-शिवलिंग पूजन।

मुर्ख लोग थोड़ा भी पढ़ते नहीं और गीता प्रेस का हवाला मांगते है,  उनके लिए ही गीता प्रेस वाली शिव पुराण से श्लोक दिया है इसका अर्थ इंग्लिश मे पढ़े अथवा हिंदी मे एक ही मिलेगा। क्यों आप इस घिनोने काम मे लगे है?

4 वेद मे मूर्ति पूजा का कही विधान नहीं ,  आर्ष ग्रंथो मे मूर्ति पूजा का कही विधान नहीं,इसलिए सर्वथा त्याज्ञ ही सिद्ध हुआ। पंडो को भी एक बार शंकराचार्य कृत परा पूजा नामक ग्रन्थ पढ़ लेना चाहिए। ईश्वर की ही पूजा होनी चाहिए और वह सर्व व्यापक है। उसको मूर्ति मे मानना सर्वथा उसका अपमान है, जो जैसा है उसको वैसा ही जानना चाहिए यही सत्य है, ईश्वर का भाव मूर्ति मे करने से वह ईश्वर भक्ति नहीं परन्तु अज्ञानता और अधर्म ही है क्युकी जैसे मिर्च मे शक्कर का भाव करने से वह मिर्च शक्कर नहीं हो जाती वैसे ही यहाँ भी समझे।  एक और दृष्टांत से समझे यदि आप चक्रवर्ती राजा को सिर्फ एक छोटे राज्य का ही राजा कहने लगे तो जैसा वह कोप करेगा वैसा ही अपमान ईश्वर को लेकर भी है। इसलिए मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध और मिथ्याचार होने से पाप है। ईश्वर के लिए वेद कहता है- (न तस्य प्रतिमा अस्ति) फिर आप उसकी प्रतिमा कैसे बनाने का दुसाहस कर रहे है ?? 


और नित्य उसी शिवलिंग पर शीश झुकाते है,उसपर पुष्पा चढ़ाते है और दूध को व्यर्थ करते है क्या ये श्रद्धा है आपकी ??  ऐसे पवित्रता आएगी आपके अंदर ??  जड़पूजन करने से आपको विद्या और धनका लाभ नहीं होगा।

जिन मूर्तियों का रक्षण सोमनाथ और मथुरा आक्रमण पर नहीं हुई, जिन भक्तो का रक्षण मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा न हो पाया वे जड़ मुर्तिया अब आपकी रक्षा करेंगी??  जब पूर्व मे नहीं हुई और प्रत्यक्ष उदाहरण आप जानते है तो आज कैसे विश्वास करते है ?? 

कोरोना महामारी मे सारे मंदिरो पर ताले लग गए , कही कही मूर्तियों को ही रोग पकड़ लेते है अब जब आपके भगवान ही रोगी होने लगे निद्रा लेते है तो संसार कैसे चलाते होंगे ??  भला पत्थर कभी रोगी होता है ?


हमने यह लेख पाखंड से निवृत करने के हेतु से ही लिखा है , क्युकी हमारा मत है- प्राचीन काल मे देवो मे श्रेष्ठ 'शिव जी' नाम से अत्यंत विद्वान महयोगी हुए है जिनका नगर कैलाश और भूटान पर्यंत क्षेत्र के आस पास रहा होगा और वही वे निवास करते होंगे।


कुछ निम्न इतिहास देखना चाहे तो हम रामायण-महाभारत इत्यादि मे कुछ उपलब्ध होता है जैसे शांति पर्व मे वर्णन मिलता है महर्षि ब्रह्मा ने एक विशाल ग्रन्थ रचा था जिसको आदि योगी शिव ने संक्षिप्त करके सूत्रबद्ध किया था 

और भी महाभारत मे शांतिपर्व के 285 अध्याय मे लिखा है -प्राचीन काल के महयोगी शिव ने धनुर्वेद , गीत - वादित्र शास्त्र , व्याकरण शास्त्र,वैद्यक शास्त्र,योग शास्त्र आदि पर विद्याये उपदेश की थी जिससे आगे संभवतः उन्ही गोत्रोक्त लोगो द्वारा अज्ञान से शैव संप्रदाय मे परिवर्तन होना अनुमानित है। 

महाभारत के शांतिपर्व के 142 वे अध्याय के 47 वे श्लोक मे कुछ वेदज्ञ विद्वानों के नाम उल्लेखीत है जिसमे शिव जी का नाम भी गणना मे आया है।

रामायन मे भी वर्णन मिलता है मिथिला पूरी के राजा जनक के पास परंपरा प्राप्त शिव धनुष था।


शिव जी दो या अनेक भी हो सकते है क्युकी 'शिव' नाम से पदवी भी होती थी,जैसे आज शंकराचार्य , व्यास आदि की पदवी दी जाती है।

और जैसा की हमें महाभारत मे जब पाण्डवो को वन गमन का दंड भोगते समय अर्जुन को एक शिव नामक भील से पाशुपतास्त्र का प्राप्त होना ऐसा वर्णन प्राप्त होता है तथा आचार्य अग्निव्रत जी ने भी शिव उपदेशामृत नामक अपनी शोध को बढ़िया ढंग से सबके सामने लाया उसे भी उनके वैदिक फिजिक्स ब्लॉग से एक बार अवश्य पढ़े।

तो हमारा यही निवेदन है की स्वयं अपने महापुरुषों की निंदा सुनना हमें पसंद नहीं एवं अतार्किक और अंधश्रद्धा पाखंड मे चलते रहना भी आपको उचित नहीं। यदि आपको सच्चे शिव जी का भक्त ही बनना है,तो उनको आदर्श रूप से क्यों नहीं लेते?  वे दिन रात प्रणव नाम के ध्यान मे लीन रहते थे ,अष्टांग योग का पालन करते थे, दुष्टो को दंड देते थे,  वेद को पढ़ाया करते थे और बड़े जितेंद्रीय और कामजयी थे आप उनके तुल्य ब्रह्मचर्यवान क्यों नहीं बनते??  वास्तविक शिव तो वेदो का ज्ञाता था और उनके भक्त वेद का नाम भी नहीं सुने है क्या वास्तव मे आप शिव भक्त कहलाने योग्य है? शिव जी तो शाकाहारी रहने का उपदेश करते थे ,मदिरा मांस आदि को पाप बतलाते और उनके भक्त इन सबको करके शिव भक्ति समझते है। स्वयं भाँग सुलफ़ा पीकर और कहते है की यह तो शिव भक्ति है और शिव को रोज कलंकित करते है। इससे हमें बहुत दुख होता है वे हमारे भी आदर्श है इसलिए हम इन पाखंडो पर प्रहार करते है।

कालांतर मे मुर्ख पोप पौराणिको ने अपने ही योगियों और धर्मात्माओ को अश्लील रूप मे प्रस्तुत किया किन्तु क्या विरोधाभास और सत्य के परिक्षण करने का साहस आपमें नहीं ? क्यों आप इन परस्पर विरोधाभासी बातो को स्वीकार कर गए ?  मनु जी ने कहा तर्क से सत्य की परीक्षा करे किन्तु आप नेत्रों पर पट्टी लगाए जैसा झूठा मिलावटी इतिहास हमें प्राप्त हुआ उसे ही सबकुछ मानते चले गए।

परन्तु सच्चा वेदपाठी , और आर्ष ग्रंथो को पढ़ने वाला कभी इन पाखंड़ो मे  नहीं फसेगा वह इन सबका विरोध करेगा और सही इतिहास को ही उपदेश करेगा।

अंत मे यदि हमसे कोई अमर्यादित शब्द लिखित हो तो उसके लिए पाठकगणो से क्षमा चाहेंगे किन्तु असत्य का नाश येन-केन-प्रकारेण होना अनिवार्य है और इसमें कोई समझौता नहीं।इसीके साथ मै अपनी लेखनी को विराम देता हु.... नमस्ते जी धन्यवाद।🙏


-राज आर्य